यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(५१६)

सूरसागर।

दिनते विछरे नँदनंदन तादिनते नहिंनैक सिरानी । पलक नलावत रहत ध्यान धरि वारंवार दुरावत पानी । लाल गोपाल मिले ऊधो में कर्महीन कछुओ नहिंजानी । समुझि समुझि उन हार श्यामकी अति सुंदर वर सारंग पानी । सूरदास ए मोहि रहे अति हरिमूरति मनमांझ समानी ॥३३॥सारंग।। ऊधो क्यों राखोंए नैननि । सुमिरि सुमिरि गुण अधिक तपतहैं सुनत तुम्हारे वैनान ॥ एजु मनोहर वदन इंदुके शारद कुमुद चकोर । परम तृषारत सजल श्यामघन तनके चातकमार ॥ मधु मराल युगंपदपंकजके गति विलास जलमीन । चक्रवाक द्युति मन दिनकरके मग मुरली आधीन ॥ सकल लोक सूनो लागत है विन देखे वहरूप । सूरदास प्रभु नँदनंदनके नखशिख अंग अनूप ॥३४॥ धनाश्री । और सकल अंगनते ऊधो अखिआँ बहुत दुखारी। अधिक पिराति सिराति न कबहूं अनेक जतन करि हारी ॥ चितवत मग सुनि मेष नमिलवत विरह विकल भई भारी । भरिगई विरह वाइ माधोके इकटक रहतं उघारी॥अलि आली गुरुज्ञान सलाका क्यों सहि सकति तुम्हारी । सूर सुअंजन आंजि रूप रस आरति हरौ हमारी ॥ ३५ ॥ रामकली ॥ ऊधो इन नन अंजन देहु । आनहु क्यों न श्यामरंग काजर जासों जुरयो सनेहु ॥ तपति रहति निशि वासर मधुकर नहिं सुहात वन गेहु । जैसे मीन मरत जल विछुरत कहा कहौं दुख एह ॥ सब विधि वानि गनि कार राख्यो खरी कपूरको रेहु । वारक श्याम मिलावहु सूर सुनि क्यों न सुयश यश लेहु॥३६॥ मलार ॥ नैना नाहिं नैये रहत । यदपि मधुप तुम नंद नँदनको निपटहि निकट कहत ॥ हृदय माँझजो हरिहि वतावत सीखो नाहि गहत । अधपरही संदेश अव धिको उलटे उलटि गहत ॥ परी जु प्रकृति प्रकट दरशनकी देखोइ रूप चहत । सूरदास प्रभु विन अवलोके सुख कोई न लहत ॥३७॥.पूरण ताए नैन पुरे। तुम पुनि कहत श्रवण हहिं समुझत दुख अति मरत विसूरे ॥ ए अलि चपल मोद रस लंपट कटु संदेश कथत कत करे। कहां. मुनि ध्यान कहां ब्रज वासिन कैसे जात कुलिश करचूरे ॥ हरि अंतर्यामी सब वूझत बुद्धि विचार सुवचन समूरे । वे हरि रत्न रूप सागरके क्यों पाइए खनावत धूरे ॥ देखि विचारि प्रगट सरिता सर शीतल सजल स्वाद रुचि रूरे। सूर स्वाति की बूंद लगी जिय चातक चित लागत सब झूरे ॥३८॥मला।। ऊधो अखिआँ अति अनुरागी।इक टक मग जोवति अरु रोवति भूले हु पलक नलागी ॥ विन पावस पावसऋतु आई देखतहैं विदमान। अवधौं कहा कियो चाहतहैं छां डहु निर्गुण ज्ञान ॥ सुनि प्रिय सखा श्यामसुंदरके जानतु सकल सुभाइ । जैसे मिले सूरके स्वा मी तैसी करहु उपाइ॥३९॥विहागरो॥ मधुकर सुनो लोचन बात । रोकि राखी अंग अंगन तऊ उडि उडि जात ॥ जो कपोत वियोग व्याकुल जाति है तजि धाम । जात योग फिरि न आवत विना दरशन श्याम ।। {दि नैन कपाट पटदै उभै घूघट ओट । स्वाति सुत ज्यों जातिकी तहुँ निकसि मणि नग फोट ॥ श्रवण सुनि यश रहत हरिको मन रहत हरि ध्यान । रहति रसना नाम रटि रटि कंठ करि गुण गान ॥ कछुक दियो सुहाग इनको तो सवै ए लेत । सूरदास प्रभु रिना देखे नैन चैन नदेत ॥४०॥ सारंग॥ मधुकर ए नैना पै हानिराखि निरखि मग कमल नयनके प्रेम मगन भए भारे । तादिनते नीदौ पुनि नाशी चौंकि परति अधिकारे ॥ सपने तुरिए जागत पुनि वोई वसत जो हृदय हमारे।यह निर्गुण लै ताहि बतावो जो जानै याकी सारै।।सूरदास.गोपाल छांडिकै चूसे टेटा खारे॥४॥धनाश्रीअँखिआँ अबलागी पछितान । जब मोहन उठि.चले मधुपुरी तब क्यों दीनो जानापिंथ न चलै सँदेश न आवै धीरज धरैन प्रान।। जादिनके विछुरे नँदनदन अंग अंग लागे वान। ऊधो अब तुम जाइ सुनाव हु आवहि सारंग पानि । सूरदास चातक.भई गोपी