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सूरसागर।


दिनते विछरे नँदनंदन तादिनते नहिंनैक सिरानी । पलक नलावत रहत ध्यान धरि वारंवार दुरावत पानी । लाल गोपाल मिले ऊधो में कर्महीन कछुओ नहिंजानी । समुझि समुझि उन हार श्यामकी अति सुंदर वर सारंग पानी । सूरदास ए मोहि रहे अति हरिमूरति मनमांझ समानी ॥३३॥ सारंग॥ ऊधो क्यों राखोंए नैननि । सुमिरि सुमिरि गुण अधिक तपतहैं सुनत तुम्हारे वैनान ॥ एजु मनोहर वदन इंदुके शारद कुमुद चकोर । परम तृषारत सजल श्यामघन तनके चातकमार ॥ मधु मराल युगंपदपंकजके गति विलास जलमीन । चक्रवाक द्युति मन दिनकरके मग मुरली आधीन ॥ सकल लोक सूनो लागत है विन देखे वहरूप । सूरदास प्रभु नँदनंदनके नखशिख अंग अनूप ॥३४॥ धनाश्री ॥ और सकल अंगनते ऊधो अखिआँ बहुत दुखारी। अधिक पिराति सिराति न कबहूं अनेक जतन करि हारी ॥ चितवत मग सुनि मेष नमिलवत विरह विकल भई भारी । भरिगई विरह वाइ माधोके इकटक रहतं उघारी॥अलि आली गुरुज्ञान सलाका क्यों सहि सकति तुम्हारी । सूर सुअंजन आंजि रूप रस आरति हरौ हमारी ॥३५॥ रामकली ॥ ऊधो इन नन अंजन देहु । आनहु क्यों न श्यामरंग काजर जासों जुरयो सनेहु ॥ तपति रहति निशि वासर मधुकर नहिं सुहात वन गेहु । जैसे मीन मरत जल विछुरत कहा कहौं दुख एह ॥ सब विधि वानि गनि कार राख्यो खरी कपूरको रेहु । वारक श्याम मिलावहु सूर सुनि क्यों न सुयश यश लेहु ॥३६॥ मलार ॥ नैना नाहिं नैये रहत । यदपि मधुप तुम नंद नँदनको निपटहि निकट कहत ॥ हृदय माँझजो हरिहि वतावत सीखो नाहि गहत । अधपरही संदेश अव धिको उलटे उलटि गहत ॥ परी जु प्रकृति प्रकट दरशनकी देखोइ रूप चहत । सूरदास प्रभु विन अवलोके सुख कोई न लहत ॥३७॥ पूरण ताए नैन पुरे । तुम पुनि कहत श्रवण हहिं समुझत दुख अति मरत विसूरे ॥ ए अलि चपल मोद रस लंपट कटु संदेश कथत कत करे। कहां मुनि ध्यान कहां ब्रज वासिन कैसे जात कुलिश करचूरे ॥ हरि अंतर्यामी सब वूझत बुद्धि विचार सुवचन समूरे । वे हरि रत्न रूप सागरके क्यों पाइए खनावत धूरे ॥ देखि विचारि प्रगट सरिता सर शीतल सजल स्वाद रुचि रूरे। सूर स्वाति की बूंद लगी जिय चातक चित लागत सब झूरे ॥३८॥ मलार ऊधो अखिआँ अति अनुरागी । इक टक मग जोवति अरु रोवति भूले हु पलक नलागी ॥ विन पावस पावसऋतु आई देखतहैं विदमान । अवधौं कहा कियो चाहतहैं छां डहु निर्गुण ज्ञान ॥ सुनि प्रिय सखा श्यामसुंदरके जानतु सकल सुभाइ । जैसे मिले सूरके स्वामी तैसी करहु उपाइ ॥३९॥ विहागरो ॥ मधुकर सुनो लोचन बात । रोकि राखी अंग अंगन तऊ उडि उडि जात ॥ जो कपोत वियोग व्याकुल जाति है तजि धाम । जात योग फिरि न आवत विना दरशन श्याम ॥ दि नैन कपाट पटदै उभै घूघट ओट । स्वाति सुत ज्यों जातिकी तहुँ निकसि मणि नग फोट ॥ श्रवण सुनि यश रहत हरिको मन रहत हरि ध्यान । रहति रसना नाम रटि रटि कंठ करि गुण गान ॥ कछुक दियो सुहाग इनको तो सवै ए लेत । सूरदास प्रभु रिना देखे नैन चैन नदेत ॥४०॥ सारंग ॥ मधुकर ए नैना पै हानिराखि निरखि मग कमल नयनके प्रेम मगन भए भारे । तादिनते नीदौ पुनि नाशी चौंकि परति अधिकारे ॥ सपने तुरिए जागत पुनि वोई वसत जो हृदय हमारे । यह निर्गुण लै ताहि बतावो जो जानै याकी सारै ॥ सूरदास गोपाल छांडिकै चूसे टेटा खारे ॥४१॥ धनाश्री ॥ अँखिआँ अबलागी पछितान । जब मोहन उठि चले मधुपुरी तब क्यों दीनो जानापिंथ न चलै सँदेश न आवै धीरज धरैन प्रान ॥ जादिनके विछुरे नँदनदन अंग अंग लागे वान । ऊधो अब तुम जाइ सुनाव हु आवहि सारंग पानि । सूरदास चातक भई गोपी