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दशमस्कन्ध-१०


कन बहुत सरास पछोरी । सवते ऊंचो ज्ञान तुम्हारो हम अहीरि मति थोरी । सुरज कृष्ण चंद्रको चाहत अखिआं तृपित चकोरी ॥२४॥ अथ नेत्र अवस्थावर्णनं ॥ धनाश्री ॥ अखि हरि दरशनकी भूखी । अव कैसे रहति श्याम रंग राती ए बातें सुनि रूखी ॥ अवधिं गनत इकटक मग जोवत तव ए इत्यों नहिं झुखी । इते मान इहियोग सँदेशन सुनि अकुलानी दूखी ॥ सूर सकत हठ नाव चलावत ए सरिता हैं सूखी । वारक वह मुख आनि देखावहु दुहि पिवत पतूखी ॥२५॥ धनाश्री ॥ अँखियाँ हरि दरशनकी प्यासी । देख्यो चाहत कमल नैनको निशि दिन रहत उदासी ॥ आए ऊधो फिरि गए आंगन-डारि गए गर फांसी । केसरिको तिलक मोतिनकी माला वृंदावनको वासीकाइके मनकी कोउ नजानत लोगनके मनहासी । सूरदास प्रभु तुम्हरे दरशको जाइ करवत ल्यों कासी ॥२६॥ धनाश्री ॥ नैनन उहै रूप जो देख्यो । तौ ऊधो यह जीवन जगको साँचहु सफल करि लेख्यो । लोचन चपल चारु खंजन मन रंजन हृदय हमारे। सुरंग कमल मीन मनोहर श्वेत अरुन अरुकारे ॥ रत्न जडित कुंडल श्रवणनवर गंड कपोलनि झाई। मनु दिनकर प्रतिविष मुकुरमहँ ढूँढत यह छवि पाई ॥ मुरली अधर विकट भौहें करि ठाठी होनि त्रिभंग । मुक्तमाल उर नील शिखरते धसी धरणि जनु गंग ॥ और वैस को कहे वरणि सब अंग अंग केसरि खौर । देखे वनै कहत रसना सों सर विलोकत और ॥२७॥ धनाश्री ॥ नैनन नंदनंदन ध्यानातहालै उपदेश दीजै जहां निर्गुण ज्ञान ॥ पानि पल्लव रेख गनि गुनि अवधि विविध विधान । एते पर कहि कटुक वचनन हते जैसे प्रान ॥ चंद्रकोटि प्रकाश मुख अवतंस कोटिक भान । कोटि मन्मथ वारि छविपर निरखि दीजत दान ॥ भृकुटी कोटि कोदंड रुचि अवलोकनि संधान । कोटि वारिज वक्र नयन कटाक्ष कोटिक वान । मणि कंठहार उदार उर अतिशयबन्यो निर्मान । शंख चक्र गदाधरै कर पदुम सुधा निधान ॥ श्याम तनु पटपीतकी छवि करै कौन बखान । मनहु नृत्यत नील घनमें तडित देती मान । रासरसिक गुपाल मिलि मधु अधर करती पान । सूर ऐसे श्याम विनको यहां रक्षक आन ॥२८॥ गूजरी ॥ ऊधो इन नेनन नेम लियो । नँदनंदन सों पतिव्रत राख्यो नाहिंन दरशवियो । चंद्र चकोर चित्त चातक जलधर सों वधो हियो। ऐसेहि इन नैनन गोपाल हि इकटक प्रेम दियो॥ आयो पुहुपज्ञानलेएडग मधुपन रुचि न कियो । हरिमुख कमल अमीरस सूरज चाहत उहै पियो ॥२९॥ कान्हरो ॥ ऊधो जू नैनन यह व्रत लीन्हों।स्वाति विना ऊपर सव भरियत ग्रीव रंध्र मत कीन्हों ॥ मुरली गरज तात मुकुतातन मेघ ध्यान जल हीनो । वरुए प्राण जाहिं ऐसेही वयन होय क्यों हीनो ॥ तुम आए लै योग शिखावन सुनत महादुख दीन्हो । कैसे सूर अगोचर लहिए निगम न पावत चीन्हो ॥३०॥ सारंग॥ जवते सुंदरवदन निहारयो । तादिनते मधुकर मन अटक्यो बहुत करी निकरै न निकारयो ॥ मात पिता पति बंधु सजन जन तिनहको कहिवो शिरधारयो । रही नलोकलाज मुख निरखत दुसह क्रोध फीटो करि डारयो । वो होइ सुहोइ कर्मवश अब जीको सब सोच निवारयो । दासी सूरदास परमानंद भलो पोच अपनो न विचारचो ॥३१॥ हरिमुख निरख निमेप विसारे । तादिनते ए भए दिगंबर इन नैननके तारे ॥ तजी सील सब सास ससुरकी लाज जनेऊ जारे । घर धुंघुट छाँडो वन वीथि नि अहनिशि रहत उधारे ॥ सहज समाधि रूप रस इकटक करत नटकते टारे। ताके बीच विघ्न करिवेको मातु पिता पचिहारे ॥ कहत सुनत समुझत मन महिआँ ऊधो पचन तुम्हारे । सूरदास ए हटक नमानत लोचन हुठीहमारे ॥३२॥ केदारो ॥ नैनन निपट कठिन व्रत ठानी । जा