भए मुरासविलिसों बांधि-पताल पठायो कीन्हें यज्ञनि आई । सूर प्रीति जानी ते हरिकी कथातजी नहिं जाई ॥९७॥सोरठा॥ उधोश्याम सखा तुम सांचे । की करिलियो स्वांग बीचहिते वैसेहि म लागत कांचे जैसी कहीहमहि आवतही औरन कहि पछितातो अपनो पति तजि और वतावंत मोहि मानि कछु खाते ।
तुरतं गमन कीजै मधुवनको इहां कहा यह ल्याए। सूर सुनत गोपिनकी वाणी ऊधो शीशनवाए ॥९८॥ नट ॥ऊधो वेगि मधुवन जाहाहम विरहिनी नारि हरि विन कौन करै निवाहु । तहीं दीजै मुरपरैना नको तुम कछु खाहु॥जो नहीं ब्रजमें विकानो नगर नारी साहासूर वै सव सुनत लैहैं जिय कहा पछिताहु ॥९९॥ धनाश्री ॥ ऊधो और कछू कहिवे कोमनमानै सोऊ कहि डारौ पाला-हम सुनि सहिवे को । यह उपदेश आजुलौं ऐसो कानन सुन्यो नदेख्यो। निरपत पटे कटुक अति जीरन चाहत मम
उर लेख्यो । निशि-दिन बसत नेकहू न निकसत हृदयं मनोहर ऐन । याको इहां ठौर नाहिंन है लै राखों जहां चैन ॥ ब्रजवासी गोपाल उपासी हमसों वात छांडि । सूर योग धन राखु मधुपुरी कुविजा के घर गाडि ॥३०००॥नयाजाहु जाहु ऊधो जानेही पहिचानेहौ । जैसे हरितैसे तुम सेवक कपट चतुरई सानहो । निर्गुण ज्ञान कहा तुम पायो कौने सिखै ब्रज आनेहौ । यह उपदेश देहु लै
कुविजहि जाके रूप लुभानेहौ ॥ कहां लगि कहौं योगको वातें वांचत नैन पिराने हौ । सूरदास प्रभु हमपर खोटी तुमतौ बारहवानेहौ ॥१॥ गौरी ॥ उधो जाहु तुमहि हम जाने । श्याम तुमहिं ह्यां को नहिं पठए तुमही वीच भुलाने ॥ ब्रजनारिन सों योग कहतही वात कहत न लजाने । बडे लों गन विवेक तुम्हारे ऐसे भए अयाने ॥ हमसों कही लई हम साहकै जिय गुणि लेहु सयाने । कहा ववला कहा दिशा दिगंबर मष्टकरौ पहिचाने ॥ सांच कहो तुमको अपनी सों बूझति वात निदाने । सूर श्याम जब तुमहिं पठायो तब नेकहु मुसकाने ॥२॥ रागगौरी ॥ कहति कहा ऊधोसों तुम बौरी । जाको सुनत रहे हरिके दिग-श्याम सखा यह सोरी। कहा कहति रीमै पत्याति नहिं मुनि तुही कहा बनावति। हमको योग सिखावन आए यह तेरेमन आवति ॥ करनी भली भलेई जाने कुटिल कपटकी वानी। हरिको सिखाव नहीं रीमाई इह मन निहचै जानी । कहां शशी रस कहां योगघर इतने अंतर भाषतासूर सबै तुम भई वावरी याकी पति कहा राखता॥३॥ ॥ कान्हरो ॥ ऐसेही जन धूत कहावतामोको एक अचंभो आवत या वै कछु पावताावचन कठोरें कहत कहि दाहत अपनो महत गवाँवत । ऐसिउ प्रकृति परी कान्हाको युवतिन ज्ञान बतावत ॥ आपुन निलज रहत नख शिखलौं एतेपर पुनिगावत । सूर करत परशंसा अपनी हारेहु जीति
कहावत ॥४॥ मलार ॥ ऐसे जन बेसरम कहावत । सोच विचार कहूँ इनके नहिं कहि डारत जो आवत ॥ अहिके गुण इनमें परिपूरण यामें कछू न पावत । लघुता हलत महति करियो हसि नारिन योग बतावत।ब्रज हीन भए अब जैहै अनतह ऐसेहि गावत ॥५॥ कान्हो । प्रकृति जो जाके अंग परी । श्वान पूँछको कोटिक लागे सूधी कहुँ नकरी ॥ जैसे सुभक्ष नहीं भक्ष छडि जन्मत जौन घरी । धोए रंग जात नहिं कैसेह-ज्यों कारी कमरी ॥ ज्यों अहि डसत उदर नहि पूरत ऐसी धरनि-धरी । सूर होइ सोहोइ सोच नहिं तैसेंहैं एऊरी ॥६॥ सारंग ॥ ऊधो होहु आगे ते न्यारे । तुमहि देखि तन अधिक जरतहै अरु नैननके तारे ॥ अपनो योग सैंति धरि राखो यहाँ देत कत-डारे । सो को जानत अपने मुखहै मीठे ते फल खारे ॥ हमरे गिरिधरके जु नाम गुण वसे कान्ह उरवारे । सूरदास हम सबै एक मत ए सव-खोटे कारे ॥७॥ कल्याण ॥ जाहु जाहु आर्गत
॥ ऊधो पति राखति हौं तेरी । काहे को अब रोष दियावत देखति आँखि बरत हैं मेरी ॥ तुम जो
पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६०५
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(५१२)
सूरसागर।