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सूरसागर।


आतुर विरह वियोग ॥७९॥ सारंग ॥ यहि अंतर मधुकर इक आयो।निज स्वभाव अनुसार निकट होई सुंदर शब्द सुनायो। पूंछन लागी ताहि गोपिका कुविजा तोहि पठायो । कीधौं सूरश्याम सुंदरको हमैं संदेशोल्यायो ॥८०॥ मलार ॥ मधुकर कहा यहां निर्गुणगावहि । एप्रिय कथा नगरनारि नसों कहहि जहां कछु पावहि ॥ जिनि परसहि अब चरन हमारे विरहताप उपजावहि । सुंदर मधु आनन अनुरागी नैनन आनि पिलावहि ॥ जानति सर्म नंद नंदनको और प्रसंग चलावहिहम नाहिंन कमलासी भोरी करि चातुरी मनावहिं ॥ अति विचित्र लरिकाकी नाई गुरदेखाइ बौरावहि । ज्यों अलि कि तव सुमन रसलै तजि जाइ बहुरि नहिं आवहि ॥ नागर रति पति सूरदास प्रभु किहि विधि आनि मिलावहि ८१विलावल मधुप तुम कहो कहांते आएहो । जानतिहौं अनुमान आपने तुम यदुनाथ पठायेहौविसही वरन वसन तनु वैसे वै भूषण सजिलाएहो । लै सरवसु सँग श्याम सिंधारे अब कापर पहिराएहो ॥ अहो मधुप एकै मन सबको सुतौ उहां लै छाएहो । अब यह कौन सयान बहुरि ब्रज जाकारण उठि आएहो ॥ मधुवनकी मानिनी मनोहर तहीं जाहु जहाँ भाएहो । सूर जहां लौं श्याम गातही जानि भले करि पायेहो ॥८२॥ गौरी ॥ मधुकर जो हरि कहो सो कहिए। तब हम अब इन हीकी दासी मौन गहे क्यों रहिए ॥ जो तुम योग सिखावन आए निर्गुण क्यों करि गहिए । जो कछु लिखो सोइ माथेपर आनि परे सब सहिए ॥ सुंदर रूप लाल गिरिधरको विनु देखे क्यों लहिए । सूरदास प्रभु समुझी एकै रस अब कैसे निरवहिए ॥८३॥ ऊधो वचन ॥ धनाश्री ॥ सुनहु गोपी हरिको संदेश । करि समाधि अंतर्गति ध्यावहु यह उनको उपदेश ॥ वै अविगति अविनाशी पूरण सब घट रह्यो समाइ । निर्गुण ज्ञान विनु मुक्ति नहींहै वेद पुराणन गाइ ॥ सगुण रूप ताज निर्गुण ध्यावो इक चित इक मनलाइ । यह उपाव करि विरह तरो तुम मिलें ब्रह्म तब आइ ॥ दुसह संदेश सुनत माधोको गोपी जन विलखानी । सूर विरहकी कौन चलावै बूडत मन विन पानी ८४ ॥ गोपीवचन ॥ मलार ॥ मधुकर हमही क्यों समुझावत । वारंवार ज्ञान गीता ब्रज अवलनि आगे गावतानंदनंदन विनु कपट कथाए कत कहि रुचि उपजावत । मृक चंदन जो अंग क्षुधारत कहि कैसे सुखपावत ॥ देखि विचारतही जिय अपने नागरहो जु कहावत । सव सुमनन पर फिरी निरख कार काहेको कमल बँधावत ॥ चरण कमल कर नयन कमल वर इहै कमल वन भावतासूरदास मनु अलि अनुरागी केहि विध हो वहरावत ॥८५॥ मलार ॥ रहुरे मधुकर मधु मतवारे कौन काज या निर्गुण सों चिरजीवहु कान्ह हमारे ॥ लोटत पीत पराग कीच में नीचन अंग सम्हारे । वारंवार सरक मदिराकी अपसर रटत उघारे ॥ दुम वेली हमहूं जानतहो जिनकेहो अलि प्यारे। एक बास ले के विरमावत जेते आवत कारे ॥ सुंदर वदन कमलदल लोचन यशु मति नंद दुलारे । तन मन सूर अर्पि रही श्यामहि कापै लेहि उधारे ८६॥मधुकर कौन देशते आए । अजवाते अक्रूर गए लै मोहन ताते भए पराए । जानी सखा श्याम सुंदरके अवधि बांधन उठि धाए । अंग विभाग नंद नंदनके यहि स्वामितहै पाए ॥ आसन ध्यान वाइ आराधन अलिमन चित तुम ताए । आति विचित्र सुबुद्धि सुलक्षण गुंजयोग मतिगाए ॥ मुद्रा भस्म विषान त्वचा मृग ब्रज युवतिन मनभाए । अतसी कुसुम वरन मुरली मुख सूरज प्रभु किन ल्याए ॥८७॥ मधुकर काके मीत भए । त्यागे फिरत सकल कुसुमावलि मालति भोरै लए ॥ छिनुके बिछुरे कमल रतिमानी केतकि कत विधए । छांडि देहु नेहु नहिं जान्यो: लै गुण प्रगट नए ॥ नूतन कदम तमाल वकुलं वट परसत जनम गए । भुज भार मिलनि उड़त उदासढे गत स्वारथ ॥