दीनो लोग ॥६९॥ अथ उद्धव वचन ॥ सारंग ॥ गोपी सुनहु हरि कुशलाताकस नृपको मारि छोरयो आप नोपितु मात ॥ बहुत विधि व्यवहार करि दियो उग्रसेनहि राज । नगर लोग सुखी वसतहैं भए सुरनके काज ॥ वे इह पाती मुझे लिखि मुख कह्यो कछू संदेश । सूर निर्गुण ब्रह्म परिकै तनहु
सकल अंदेश ॥७०॥ केदारो ॥ गोपी सुनहु हरि संदेशागए संग अक्रूर मधुवन हत्यो कंस नरेशरिज क मारयो वसन पहिरे धनुष तोरे जाइ । कुवलया चाणूर मुष्टिक दई धरणि गिराइ ॥ मात पितुके
वंदि छोरे वासुदेव कुमार । राज्य दीन्हों उग्रसेनहि चमर निज करदार ॥ कह्यो तुमको ब्रह्म ध्यावो छांडि विपै विकार । सूर पाती दई लिखि माहिं पढौ गोपकुमार ॥७१॥ अथ पाती वचन अवस्था ॥ सारंग॥ पाती मधुवनं होते आई । सुंदर श्याम कान्ह लिखि पठई आइ सुनोरी माई ॥ अपने अपने गृह ते दौरी ले पाती उरलाई । नैनन निरखि निमेष न खंडित प्रेम व्यथा न बुझाई ॥ कहा करौं सूनो
यह गोकुल हरि विन कछु न सोहाई । सूरदास प्रभु कौन चूकते श्याम सुरति बिसराई ॥ ७२ ॥ निरखत अंक श्याम सुंदरके वार वार लावत लै छातीलोचन जल कागज मसि मिलि करि लै गई श्याम श्याम जूकी पाती ॥ गोकुल वसत नंदनंदनके कबहुँ क्यारि न लागी ताती । अरु हम उती कहा कहैं उधो जब मुनि वेणु नाद सँग जाती ॥ प्रभु कै लाड वदति नहिं काहू निशि दिन रसिक रास रस राती । प्राणनाथ तुम कबहुँ मिलहुगे सूरदास प्रभु वाल संघाती ॥७३॥ पातीमधुवनते आई । ऊधो हरिके परम सनेही ताके हाथ पठाई ॥ कोउ पूछत फिरि फिरि ऊधोको आपुन लिखी कन्हाई । बहुरो दुई फेरि ऊधोको तब उन वाचि सुनाई। मनमें ध्यान हमारो राखो सूरदास सुखदाई ॥७४॥ मारू ॥ लिखि आई ब्रजनाथकी छापाऊधो बाँधे फिरत शीश पर देखे आवै तापा।उलटी
रीति नंदनंदनकी घरि घरि भयो संताप । कहियो जाइ योग आराधैं अविगत अकथ अमाप । हरि आगे कुविजाआधिकारिनि को जीवै इहि दाप । सूर सँदेश सुनावन लागे कहौं कौन यह पाप ॥७५॥ मलार ॥ कोउ ब्रज वाँचत नाहिंन पाती। कत लिखि लिखि पठवत नंदनंदन कठिन विरहकी
कांतीनैन सजल कागज अति कोमल कर अँगुरी अतिताती । परसै जरै विलोके भीजै दुहूँ भाँति दुख छाती ॥ क्यों ए वचत सुअंक सूर सुनि विरह मदन शरघाती । मुख मृदु वचन विना सींचे अव जिवहि प्रेम रस माती ॥ काहेको लिाख पठवत कागरामदन गोपाल प्रगट दरशन विनु क्यों राखहि मन नागर ॥ उधो योग कहा लै कीवो विनु जल सूखो सागर । कहिधौं मधुप
संदेश सुचितदै मधुवन श्याम उजागरसूरश्याम विनु क्यों मन राखौं तन योवनके आगर ॥७६॥॥ धनाश्री ॥ उधो कहा करलै पाती । जवनहिं देख्यो गुपाल लालको विरह जरावत छाती ॥ जान तिहौं तुम मानति नाहीं तुमहूँ श्याम सँघाती निमिप निमिप मोविसरत नाहीं शरद सुहाई राती ॥ यह पाती लैजाहु मधुपुरी जहां वसैं श्याम सुजाती । मन जु हमारे उहाँलैगए काम कठिन शरघाती ॥ सूरदास प्रभु कहा चहतहै कोटिक बात सुहाती। एकवेर मुख बहुरि दिखा
बहु हैं चरण रजराती ॥७७॥ मलार ॥॥ सँदेशन मधुवन कूपभरे । अपने तौ पठवत नंद नंदन हमरे फिरि नफिरे ॥ जेइ जेइ पथिक हुते ब्रजपुरके बहुरि नशोधकरे । कै वह श्याम सिखाय प्रबोधे के वह वीचगरे । कागजगरे मेघ मसि खूटी शर दौलागि जरे। सेवक सूर लिखते आधो पलक कपाट अरे ॥७८॥ मलार ॥ आए नँदनंदनके नैवागोकुल मांझ योग विस्तारयो भली तुम्हारी जेव ॥ जब वृंदावन रास रच्यो हरि तबहिं कहा तुम हेव । अब यह ज्ञान सिखावन आए । भस्म-अधारी सेव ॥ अवलनको लै सो व्रत ठान्यो जो योगनिको योग । सूरदास ए सुनत नजीवहि
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दशमस्कन्ध-१०