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श्रीहरिः।
श्रीसूरदासजीका जीवनचरित्र।

न जाने क्यों हमारे देशके विद्वानों का ध्यान इतिहासकी ओर तनिक भी न आया? कि जिसके कारण अनेकानेक प्रसिद्धपुरुषोंके नाम भी नहीं सुननेमें आते सूरदास जीको हुए अभी कुछ बहुत दिन नहीं हुए परंतु इतनेही थोड़ेकालमें भारतवर्ष के एक इतने बड़े प्रसिद्ध कविके जीवन चरित्रका पता ठीक ठीक नहीं लगता, यहाँतक यहाँके लोगोंका ध्यान इस ओर कम था कि सूरदासनजीके थोड़ेही दिन पीछे गोस्वामी श्रीविठ्ठलनाथ जी महाराजके पुत्र श्रीगोकुलनाथ जीने जो चौरासी वैष्णवोंकी वार्ता लिखी उसमें भी सूरदास जीका चरित्र सुना सुनायाही लिख दिया; यदि उस समय थोड़ा भी परीश्रम किया जाता तो इनका पूरा पता लगजाता परंतु खेद कि इधर तो किसीका ध्यानही न था॥

सूरदास जीके विषयमें चौरासी वैष्णवोंकी वार्ता तथा पूज्यपाद भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र जीने जो लिखाहै वह और साहित्य लहरीमें बाबू रामदीन सिंहने जो कुछ छापाहै स्थानान्तरमें प्रकाशित कियाजाताहै यहाँ हम केवल समय का निरूपण करते हैं॥

सूरदास जीका समय निर्णय करना कुछ बहुत कठिन नहीं है क्योंकि श्रीवल्लभाचार्य महाप्रभुके ये शिष्य थे ("श्रीवल्लभगुरु तत्त्व सुनायो लीला भेद बतायो" सू.सा.सा.११०२) और श्री गोसाईं जी (श्रीविठ्ठलनाथ जी) के समयमें ये मरे यह तो इनके लेखही से विदित है "थापि गोसाईं करी मेरी आठ मद्धे छाप" (भारतेन्दु जी लिखित लेख) श्रीवल्लभाचार्य महाप्रभुका जन्म संवत् १५३५ वैशाख कृष्ण ११ को और अन्तर्ध्यान संवत् १९८७ आषाढ़ शु॰ ३ को और श्री गोस्वामी विट्ठलनाथ जीका जन्म संवत् १९७२ पौषकृष्ण ९ और अन्तान संवत् १६४२ माघ कृष्ण ७ को हुआ. अब इनका समय संवत् १९३५ से लेकर संवत् १६४२ के वीच १०७ वर्ष के भीतर ही निर्णय होना चाहिये अब विचारना चाहिये कि इन्होंने अल्पायु पाई या दीर्घायु। १ पहिले तो उनके पदोंकी बड़ी संख्या ही उन्हें दीर्घायु बताती है परन्तु मुझे उनकी अवस्था लगभग अस्सी वर्षकी होनेका पका प्रमाण मिला है. सूरदासजीने सूरसागर सारावलीको अपनी सरसठ वर्षकी अवस्थामें लिखी है॥      यथा॥

गुरू प्रसाद होत यह दरशन सरसठ बरस प्रवीन। शिव विधान तप करेउ बहुत दिन तऊ पार नहिं लीन॥१००२॥ सुख पर्यंक अंक ध्रुव देखियत कुसुम कन्द दुम छाये। मधुर मल्लिका कुसुमित कुंजन दम्पति लगत सोहाये।।१००३॥ गोवर्द्धन गीरि रत्न सिंहासन दम्पति रस सुख मान। निविड कुंज जहँ कोउ न आवत रस विलसत सुखखान॥१००४॥ निशा भोर कवहूं नहि जानत प्रेममत्त अनुराग। ललितादिक सींचत सुख नैननि जुर सहचरि बड़भाग॥१००६॥ यह निकुंजको वर्णन करिदे वेद रहे पचिहारा। नेति नेति करि कहेउ सहस विधितऊ न पायो पार१००६