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दशमस्कन्ध-१० - -- जोइ सोई भई यह वात ॥ वचन परकट करन कारण प्रेमकथा चलाइ। सुनहु ऊधो मोहिं बजकी सुधि नहीं विसराइ ॥ रैनि सोवत दिवस जागत नहींहै मन आन । नंद यशुमति नारि नर ब्रज | तहां मेरो प्राण । कहत हरि सुनि उपॅगसुत यह कहतहौं रसरीति । सूर चितते टरत नाही राधिकाकी प्रीति॥१२॥सखा सुन एक मेरी बात । वह लता गृह संग गोपिन सुधकरत पछितात ॥ विधि लिखी नहिं टरत कैसेहु यह कहत अकुलात । हसि उपँगसुत वचन बोले कहा हरि पछितात ॥ सदा हित यह रहत नाहीं सकल मिथ्या जात । सूर प्रभु यह सुनहु मोसों येकही सों नात ॥ १३॥ जब ऊधो यह बात कही। तव यदुपति अतिही सुख पायो मानी प्रगट सही ॥ | श्रीमुख कह्यो जाहु तुम बजको मिलो जाइ ब्रजलोग । मोविन विरह भरी ब्रजवाला जाइ सुनावहु योग । प्रेम मिटाइ ज्ञान परवोधहु तुमहो पूरण ज्ञानी। सूर उपॅगसुत मन हरपाने यह मामाइन जानी॥१४॥ गौरी ॥ ऊधो तुम यह निहचै जानो । मन वच क्रम मैं तुमहि पठावत व्रजको तुरत पलानो॥ पूरण ब्रह्म अकल अविनाशी ताके तुमहो ज्ञाता । रेख न रूप जाति कुल नाहीं जाके नहि पितु माता।यह मत दै गोपिनको आवहु विरहन मनमें भापति।सूर तुरत तुम जाय कही यह ब्रह्म विना नहिं आसति।।१६||सारंगाऊधो तुम वेगही व्रजजाहु । सुरति संदेश सुनाइ मेटो वल्लभनि को दाहु ॥ काम पावक तुलित मनमे विरह श्वास समीर । भस्म नाहिन होन पावत लोचन नके नीर ॥ आजुलौं इहि भांतिहै वा कछुक श्वास शरीर । एते पर विना समाधानहि क्यों धरै त्रियधीर ॥ बार बार कहा कहों तुमसों सखा साधु प्रवीन । सूर सुमति विचारिए जिहि जिये जल विनुमीन ।। १६ ॥ धनाश्री ॥ ऊधो ब्रजको गमन करो। हमहि विना विरहिनी गोपिका तिनके दुखहि हरौ ॥ योग ज्ञान परवोधि सवनको ज्यों सुख पावे नारि । पूरण ब्रह्म अलख परचै करि माहिँ विसारै डारि ॥ सखा प्रवीन हमारे तुमही तुमते नहीं महंत । सूर श्याम कारण यह पठवत है आवेंगे संत ॥ १७ ॥ नट ॥ उधो मन मभिमान वढायो । यदुपति योग जानि जिय सांचो नयन अकास चढ़ायो। नारिन पै मोको पठवत है कहत सिखावन योग । मन ही मन अपकरत प्रशंसा यह मिथ्या सुख भोग ॥ आयसुमानि लियो शिर ऊपर प्रभु आज्ञा पर मान । सूरदास प्रभु गोकुल पठवत मैं क्यों कहौं कि आन ॥१८॥ कान्हरो ॥ तुम पठवत गीकुलको जैहौं । जो मानि हैं ब्रह्मकी बातें तो उनसों मैं कैहौं । गदगद वचन कहत मन प्रफुलित वार वार समुझेहौं । आजुइ नहीं करौं तुवकारज कौनकाज पुनि लैहौं । यह मिथ्या संसार सदाई यह कहि कै उठि ऐहौं । सूर दिना द्वै ब्रजजन सुखदै आइ चरण पुनि गैहौं ॥ १९॥ केदारो। सुन सखा हित प्राण मेरे नाहिनै सम तोहिं । कैसेहूं करि उऋणकीजो व्रजवधुनते मोहित्याजि ये मैं रतन दीन्हों वृथा गोपकुमारि । सालोक्य सामीप्य नासारोपिता भुजचारि ॥ अंगरही साजो चिंतासों संधि नहीं तनु ज्ञान । सोई तुम उपदेशह जो लहैं पद निर्वान ॥ जौन अवकै कृतकरें तो होइहो ऋण दास । सूर गाइ चराइहाँ कै फेरि बसि व्रजवास ॥२०॥ विहागरो ॥ तुरत बजजाहु उपँगसुत आजु । ज्ञान वुझाइ खबरिदै आवहु एक पंथ द्वै काजु ॥ जवते मधुवन को हम आए फेरि गयो नहि कोई । युवतिन पै ताहीको पठवै जो तुम लायक होई ॥ एक प्रवीन अरु सखा हमारे जानी तुम सरि कौन । सोइ कीजो जैसे ब्रजवाला साधन सीखै पौन ॥श्रीमुख श्याम कहत यह वाणी उधो सुनत सिहात । आयसु मानि सूरप्रसु जहाँ नारि मानि हैं वात ॥२१॥ गौरी ॥ ऊधो व्रज जिनि गह रु लगावहु । तुम ब्रजनारि जानि मन सकुचत कहिधो योग सुनावहु ॥ वाणी कहत समुझि वै लेहैं