यह दुख आनि दहै ॥९३॥ सारंग ॥ माधो छांडिवे पहिचानिातवते विरह कुटिल या गोकुल कीनो है विजु खानि ॥ तनु गिरि जानि आनि अवनी डर इहि उड भीतरहे । गमन कान्ह क्षण क्षण तु काम शशि किरनि कुदार गहरेणु अंजन जल नैन द्वार कै रह्यो हृदय भरि पूरि । निकसत नाही पापरतन ज्यों गयो श्याम सँग दूरि ॥ तुमसों बात और अलि भापे उलटि ध्यान वपुजीत्यो । दै नृप लरत जाइ इंद्रीगत कहो सूरको नीत्यो ॥९४॥ नट ॥ मेरे मन इतनी शूलरहीवि वतियां छतियां लिखि राखी जे नंदलाल कही ॥ एक दिवस मेरे गृह आए हौंहीं मथत दही । राति मांगत मैं मान कियो सखी सो हरि गुसा गही ॥ सोचति अति पछिताति राधिका मुर्छित धरणि ढही । सूरदा स प्रभुके विछुरे ते व्यथा न जात सही ॥९५॥मलार ॥ हार इते दिन लाए। आवन कहि गए अजहुँ न आए । चलत चितै मुसुकायके मृदु वचन सुनायेतेिई ढंग मोदक भए न धीरन हरि तन छूछे करि छिटकाये । मोहन यदुनाथके गुण जानि नपाए।मनहु सूर घनश्याम सुंदर बहुरिन चरण दिखाए ॥ ॥९६॥ यह दुख कौन सों कहाँ। जोइ बीतात सोइ कहति सयानी नित सब शूल सहाँ । जे सुख श्याम संग सबकीने गहि राखे इहि गात । ते अब भए शीत या तनुको शाखा ज्यों दुम पात ॥ जो हुती निकट मिलनकी आशा सोतो दूरि गई । यथा योग ज्यों होत रोगिया कुपथी करत नई । यह तनु त्यागि मिलन यो पनि है गंगासागर संग । अब सुनं सूर ध्यान ऐसो है श्याम
राम इक रंग ॥९७॥सारंग ॥ हम शरघात ब्रजनाथ सुधानिधि राखे बहुत जतन करि सचि सचि । मन मुख भरि भरि नैन ऐन उरप्रति कमल कोशलौं खचि खचि ॥ सुभग सुमन सब अंग अमृतमय तहां तहां राखति चित रचि रचि ॥ मोहन मदन स्वरूप सुयशरस करत सुगुप्त प्रेमरस पचि पचि । सूरसुदास पीयूष लागि रस पठयो नृपति तेउ गए वचि वचि । अब सोई मधु हरयो सुफलक सुत दुसह दाह जो उठत तन तचि तचि ॥९८॥ जयते नंदलाल चले काहू मुरली न बजाई । उन विना जिय कठिनपीर निकसिह नजाई । वृंदावनमें भूलि काहू सारंगौ न गाई । गोपिन कठिनहिए तरकि हू नजाई । सूरदास प्रभुकी लीला ऊधो कछु पाई ॥१९॥ सारंग ॥ माई वैदिना येदेह अछत विधना जो आनरी । श्यामसुंदर रंग रंग युवति वृंद ठानेरी ॥ यद्यपि अक्रूर मूल परमगति पढ़ावैरी प्राणनाथ कमल नैन बाँसुरी बजावैरी ॥ सोइ कहा कहाँ कहत कठिन कहै कौन मानैरी । सूरसो नंद प्रेम पीर विरही मिले जानेरी ॥ २९०० ॥ सवकोउ कहत सयानी
बातै । समुझिं नपरत बूझि नहिं आवत कही जात नहिं तातै ॥ पहिले जानि अग्नि चंदन सी सती बहुत उमहै । समाचार ताते औ सीरे आगे जाय लहै ॥ कहत फिरत संग्राम सुगम अति कुसुममाल करवार । सूरदास शिरदेत शूरमा सोइ जाने व्यवहार ॥ १॥ गूनरी ॥ कुंवरिको वैरागी वैराग । पलटति वसन करति निशिचोरी वपु विलसत भई जाग ॥ वेसार वेहदि मृगमंद मथि नख उर धुकधुकी खेद कीनी । चलत चरण चित गयो गलित झिर स्वेद सलिल भैभीनी ॥ छूटी भुजवल फूटी वलय कर छटि लरफटी कंचुकी छीनी । मनहुँ प्रेमको परनि परेवा याही से
पढिलीनी ॥ अवलोकत इहि भांति रमापति जानौं अहिमणि छीनी । सूरदास प्रभु कही न जाइ कछु हौं जानी मति हीनी ॥२॥ मलार ॥ हरिको मारग दिन प्रति जोवति । चितवति रहति चकोर
चंद्र ज्यों सुमिरि सुमिरि गुण रोवति ॥ पतिआं पठवत मसि नहिं खंडित लिखि लिखि मानहु धो वति । भूपण दिननिशिनीद हिरानी एको पलनहि सोवति ॥ सूरदास प्रभु तुम्हरे दरश विनु वृथा जनम सुख खोवति ॥३॥ बिलावल ॥ अंतर्यामी कुँवर कन्हाई । गुरु गृह पढत हुते जहां विद्या
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दशमस्कन्ध-१०