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सूरसागर।


सों पंकज गहि सीचे ए कवहून निदानै ॥ शिवनृप अरु सनकादिक कपि मुनिराई पर रति रंगमानै । करिहारी वह लोभ निसोए जु रहत इकताताने ॥ वपु विचारि अवगनि इनते भाव कुचित यह ठानें । सूरदास प्रभु शिशु लीलामै नावी रौन जु वान ॥ ८३ ॥ नाहिनै ब्रजनंद कुमार । परमचतुर सुंदर सुजान सखी या तनुको प्रतिहार ॥ रूप लकुट लिएही रहते अलि अनु दिन नैननि द्वार । तादिनते डर भौन भयो सखी शिवरिपुको संचार ॥ दुख आवन कछु अटक न मानत सूनो देखि अगार । अंशु उसास जात अंतरते करत न कछू विचार ॥ निशानिमेष कपाट लगे बिन शशिमूषतसतसारासूर प्राणलांटे लाज न छांडत सुमिरि अवध आधार ॥८४॥ मलार ॥ ऐसो जो हरि आवहिं गे। निरखि निरखि वह मदन मनोहर नैन बहुत सुख पावहिं गे ॥ तैसिए श्याम घटा घनघोरनि बिच वग पंति दिखावहिं गे। तैसेई मोर पिक करत कुलाहल हरपि हिं डोलना गावहिंगे ॥ तैसीए दमकति दामिनी अरु मुरली मलार बजावहिंगे । अवकै चलते जानि सूर प्रभु सब पहिले उठि धावहिंगे ॥८५॥रामकली ॥ ब्रज कहा खोरीछत अरु अछत एकरख अंतर मिटत नहींकोउ करहु कोरी ॥ बालकही अभिलापनि लीला चकृत भई कुललाज छोरी ॥ विरुध विवेक गोपरस परि करि विरहसिंधु मारत ते वोरी ॥ यद्यपि हो त्रयलोक के ईश्वर परसि दृष्टि चितवति न वहोरी । सूरदास प्रभु प्रीति रीति कतते तुम सब अब रहे तोरी ॥८६॥ सारंग ॥ हरि मोको हरि भषु कहि जुगयो । हरि दरशत हरि मुदित हरि ब्रज हरि जुलयो । हरिरिपु तारिपु पतिको सुत हरि विनु प्रजार दहे । हरिको तात परस उर अंतर हरि विन अधिक वहे ॥ हरि तनया सुधि तहाँ वदति हरि अभिमानन ढायो । अव हरि दवन दिवा कुविजाको सूरदास मन भायो ॥८७॥ सारंगा॥ हरि विनु कौन सों कहिए । मनसिज व्यथा जारति अरनिलों उर अंतर दहिए । कानन भवन रैनि अरु वासर कहूं न सच लहिए । मूके भये यज्ञके पशुलौं कोलौं दुख सहिए । कबहुँक उपजै जियमें ऐसी जाइ यमुन वहिए । सूरदास प्रभु कमल नैन विन कैसे ब्रजमें रहिए ॥ ॥८८॥ मारू किते दिन हरि देखे विनवीते । एको फुरत न श्याम सुंदर विन विरह सबै सुखजीते ॥ मदन गोपाल बैठि कंचनरथ चिते किए तनुरीते । सुफलकसुत लैगए दगादै प्राणनहींके प्रीते बहुरि कृपालु घोष कब आवहि मोहन राम समीते । सूरदास प्रभु बहरि कृपाकरि मिलहु सुदामा मीते ॥८९॥ सारंगा ॥ कान्हधों हमसों कहा कह्यो । निकस्यो वचन सुनाइ सखीरी नाहिन परतु रह्यो मैं मतिहीन मर्म नहिं जान्यो भूली मथत मह्यो। अब कहा करों घोष वासि सजनी दूत दूरि निवरो ।सबै अजान भई तेहि औसर काहूरथ नगह्यो। सूरदास प्रभु वृथा लाज करि दुसह वियोग सह्यो ॥९०॥ नट ॥ ग्वालिनी छांडि देखि रह खरयो। तेरे विरहिनि व्याकुल भवन काज विसरचो कर पल्लव उडुपति रथ खेच्यो मृगपति वैर करयोपिंखी पति सबही सकुचाने चातक अनंगभरयो । सारंग सुर मुनि भयो वियोगी हिमकर गर्व टरयो । सूरदास सापर सुतहित पति देखत मदन हरयो ॥९१॥ सारंग ॥ विरह भरयो घर अंगन कौनेदिन दिन वाढत जात सखीरी ज्यों कुरखेतके डारे सोने ॥ तब वह दुख दीनो जब वांधे ताहूको फल जानि । निजकृत चूक समुझि मनहीं मन लेत परस्पर मानि ॥ हम अबला अति दीन हीन मति तुमहीही विधियोग । सूर वदन देखतही अहुठे या शरीरको रोग ॥९२॥ मलार ॥ जोपै कोउ माधो सों कहै । तो यह व्यथा सुनत नंदनंदन कंत मधुपुरी रहै । पहिलेही सब दशा बतावै पुनिकर चरण गहै । यह प्रतीति मेरे चिंत अंतर सुनत न प्रेम सहैं । यह संदेश सूरके प्रभुको को कहि यशहि लहै । अबकी वेर दयालु दरश दे