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(१९८) सूरसागर । मनोरथ कीजै ॥ सवन कहत मन रीस रिसाए नहिंन वसाय प्राण तजि दीजै । सूर सुपति सों चराच चतुरई तुम यह जाइ बधाई लीन॥६॥रागकेदाग नियहि क्यों कमलनि कादौहीनाजिनसों प्रीति हुतीरी सुनु सखी तिनहुँ विछरि दुखदीन ॥ सागर कूल मीन तरफतहैं हुलसि होत जल दीन । श्याम वारि विधि लई विरद तजि हम जु मरति लव लीन ॥ शशि चंदन अरु अंभ छाडि गुण वपु जु दहत मिलिं तीनासूरदास प्रभु मौन सवै ब्रज विन यंत्री विन वीन।।६२॥सारंगावैसी सारंग करहि लिये । सारंग कहत सुनत वे सारंग सारंग मनहि दिये॥ सारंग पथिक वैठि वह सारंग सारंग विकल हिये । सारंग धुकि सारंग परे सारंग सारंग क्रोध किए ॥ सारंगहै भुज करहि विराजत सारंग रूप किए। सूरदास मिलहीं वे सारंग तौ परि सुफल जिये ।।६३॥ मलार ॥ सो सुनियतहेरी दै माह । इतने महि सब तात समुझिवी चतुर शिरोमणि नाह । आवन को बहुत दिन लाए करी पाछिली गाह । हमहिं छांडि कुविजा मन बांध्यो कौन वेदकी राह ॥ एते पर संतोष न मानत परे हमारे डाहासूरदास प्रभु पूरो दीजै दिन दश मानी साह ॥६॥सारंग।। ऐसो सुनियत है ? साव न । उहै शूल फिरि फिरि शालत जिय श्याम कहो हो आवन ।। तब कत प्रीति करी अव त्या गी अपनो कीनो पावन । यह सुख सखी निकसि तजि जइये जहां सुनीए नावन ॥ एकहि वेर तजी मंधुकर ज्यों लागे नेह बढ़ावन । सूर सुरति क्यों होति हमारी लागी नीकी भावन। ६५॥ कान्हरो॥ काहेको पिय पियहि रटतहो पियको प्रेम तेरो प्राण हरैगो । काहेको लेति नयन जल भरि भरि नयन भरते कैसे शूल टरेगो॥ काहेको श्वास उसास लेतिहौ वैरी विरहको दुवा जरै गो॥छाल सुगंध सेज पुहुवावलि हारु छुए ते हियहारु जरैगो ॥ वदन दुराइ बैठि मंदिरमें बहुरि निशापति उदय करैगो। सुरसखी अपने इन्ह नैननि चंद्र चितै जिनि चंद्र जरैगो॥६६॥ सारंग ॥अव हरि हमको माईरी मिलत नाहिंन नैकु । नित उठि जाइ प्रातलै बनसँग आगे पाछे चलिन सकति सखी डग एकु ॥ बाँहा जोटी कुसुम चुनत दोउ दुमतन मेरे उर लगि एक दिन नख एक । रसन दशन धरि भार लिए लोचन तोरन लाय सुधर बरषे एक ॥ लावत हृदय खोचि पुरतपट फरुङ रिलेत परिजन रेक । अब कोउ सोहै वसु सूर प्रभु कौन अधिक जिहि परिवेक ॥३७॥ मलार ॥ हो कछु बोलति नाही लाजनि । एक दाइँ मारि मरिवो पै मरिवो नंदनंदनके काजनि ॥ तजि ब्रजबाल आफ्नो गोकुल अब भाए सुखराजनि । कागज लिखिपतियां नहिं पठवत पायो जियको माजान॥ जे गृह देखि परमसुख होतो विन गोपाल भए भाजन । कासों कहौं सुनै कोई दुख दूरि श्यामसों साजन ॥कारी घटा देखि धुरवा जनु विरह लयो करता जनु । सूरदास नागर-बिन अब यह कौन सह शिर गाजनु ॥६८॥ रागगौरी ॥ वहुदिन ऐसोई हतोरी जाते मेरे आंगन में मोहन चरच ऐसोरी॥ बालदशाकी प्रीति निरंतर परी रहतही ठोरी। राधा राधा नदनंदन मुख लागि रहो तिहि सोरी ॥ वेणु पाणि गहि मोको सिखावत मोहन गावन गौरी । सूरदास श्याम सारंग तजि बहु सुख बहुरि न भोरी ॥६९॥ सारंग ॥ गौरिपूतारिपु तासुत आए प्रीतम ताहि ननारे । शिव विरंचि जाके दोउ वाहन तिन हरे प्राण हमारे॥मोहिं बरजत उठि गमन कियो उठे, स्वाद लुबंध रसाल। कुंती नंद तात मुख जोवत अरु वारत अतिचाल ॥ उगवै सूर छुटैवै बंधन तौ. विरहिनि. रति मान । इहि विधि मिले सूरके स्वामी भक्त होइ सो जानै ॥७०॥ गौरी ॥ माधों जू दरशनकी औसेरि । लै जुगए मनसंग आपने बहुरि न दीन्हों फेरितुम्हरे भवन नहीं भाव मनु जनु राखै ओठे रि। कमलन यो हम हरी हेम अति कासों कहैं दुख टेरि ॥ तुम बिछुरे 'सुख कबहुँ न पायो सब