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दशमस्कन्ध-१०


संपति सोमदन मिलिक करिपाई ॥ घनदामिनि वगपांति मनोवै वरपै तडित सुहाई । बोलत वगनिकेत गरजे अति मानो फिरत दोहाई ॥ गोकुल मोर चकोर मधुप शुक सुमन समीर सोहाई । चाहत वास कियो वृंदावन विधिसों कछु नवसाई ॥ सकत न जानत लागत सूनो कोउ हुते बल वीर कन्हाई।सूरदास गिरिधर विन गोकुल कौन कौन करिहै ठकुराई॥३२॥ बहुरि वन बोलन लागे मोर । करसंभार नंदनंदनकी सुनि वादरको धार ॥ जिनको पिय परदेश सिधारो सो तियपरी निठोर । मोहिं बहुत दुख हरि विछुरेको रहत विरहको जोर ॥ चातक पिक चकोर पपीहा ए सवही मिलिचोरासूरदास प्रभु वेगि नमिलहू जनम परतहै वोर॥३३॥ यहि वनमोर नहीं एकामवान । विरह खेद धनु पुहुप भंग गुन करिल तरैया रिपुसमान। लयो घेरि मनो मृग चहुँ दिशते अचूक अहेरी नहिं अजान । पुहुपसेन धन रचित युगल तनु क्रीडत कैसो वन निधान ॥ महामुदित मन मदन प्रेमरस उमँगि भरे मैं मैनजानि । इहि अवस्था मिले सूरदास प्रभु वदरयोनानागदै जीवनदान ॥३४॥ आजु वन मोरन गायो आइजिवते श्रवण सुन्यो सुन सखिरी तवते रह्यो नजाइ ॥ बजते विछुरे मुरली मनोहर मनहुँ व्याल गयो खाइ । औपध वैद गरूरियो हरि नहिं मान मंत्र दोहाइ ॥ चातक पिक दुखदेत रैनि दिन पियपियवचन सोहाइ। सूरदास प्रभुतौ पैजीवहि जौ मिलिहै हरि आइ ॥३५॥ शिखिन शिखर चढि टेर सुनायो । विरहिनि सावधानदै रहियो सजि पावस दल आयो । नव वादल वानत पवन ताजी चढि चुटकि दिखायो। चमकत वीज शैलकर मंडित गरजि निसान बनायो । दादुर मोर चातक पिकके गण सब मिलि मारू गायो । मदन सुभट करवाण पंचलै व्रजतन सन्मुख धायो॥ जानि विदेश नंदको नंदन अवलन त्रास दिखायो।सुरश्याम पहिले गुण सुमिरिहि प्राण जात विरमायो ॥३६॥ हमारे माई मोरवा बैर परे । घन गर्जत वरज्यो नहि मानत त्यों त्यों रटत खरे। कार करि पंख प्रगट हरि इनको लैलै शीश धरे । ताही ते मोहन विरहिनिको एऊ ढीठ करे ॥ को जाने काहेते सजनी हमसों रहत अरे । सूरदास परदेश वसे हरि एवनते नटरे॥३७॥ कोउ जाइ वरजौ बोलत मोरनि । टेरति विरह छिनुन रह्यो परै सुनि दुख होत करोरनि ॥ रटत पपीहा छिनु नरहाई होत विरहकी रोरनि । चमकत चपल चहूँ दिश दामिनि अमर धनकी घोरनि ॥ वर्पत बूंद वाण से लागत विरहाशरके जोरनि । चंद्र किरन नैनन भरि पीवत नाहिंन तृप्ति चकोरनि ॥ मन्मथ पीर अधिक तनु कंपित ज्यों मृग केहरि कोरनि । सूरदास तोही पर पचिवो मिलि हौ नंद किसोरनि॥३८॥सारंग॥ अहोरे विहंगम वनवासी । तेरे बोल तरजनी वाढत श्रवन सुनत नींदउनासी।कहा कहौं कोउ मानत नाही इक चंदन औचंद परासी । सूरदास प्रभु ज्यों न मिलेंगे लेहौं करवत कासी ॥३९॥सारंग॥श्यामहि सुरति कराइापौठेहोहिं जहां नंद नंदन ऊंचे टेर सुनाइ॥गये ग्रीपम पावस ऋतु आई सब काहू चितचाइ । तुम विनु व्रजवासी ऐसेजी जों करिया विननाइ ॥ तुम्हरो कह्यो मानिहैं मोहन चरण पकरि लैआइ । अवकी बेर सूरके प्रभुको नैनन आनि देखाइ ॥४०॥मलार॥ सखीरी चातक मोहिं जिआवत । जैसेहि नि रटति हौं पिय पिय तैसेही वह पुनिर गावत ॥ अतिः सुकंठ दाहु प्रीतमको तारुजीभ मनलावत। आपुन पवित सुधारस सजनी विरहिनि बोलि पिआवत । जो ए पंछी सहाय न होते प्राण बहुत दुख पावत । जीवन सफल सूर ताहीको काज पराए आवत॥४१॥सारंग॥ चातक न होइ कोल विरहिनि नारि। अजहूँ पिय पिय रजनि सुरति करि झूठेहि मांगत वारिअति कृपगात देखि सखी याको अहनिशिवाणी रटत पुकारि । देखौ प्रीति वापुरे पशुकी आन जनम मानत नहिं हारि ॥