आगय अटक दई । सुपनेहू संयोग सहति नहिं सहचरी सौति भई ॥ कहतहि पोच सोच मनहीं मन करत न बनति खई । सूरदास तनु तजै भले वनै विधि विपरीति ठई ॥८७॥नट॥ पियकी बात
सुनहि किन प्यारी । जो कछु भयो सो काहिहौँ तुम सन होहु सखिनते न्यारी ॥ तव वियोग सोकतो उपज्यो काम देह तनु जारी। भेषज अधर सुधाहै तुमपै चलिदै व्यथा निवारी ॥ कठिन परे जु कुशल रिपु पूछै मनकी कहा विचारी।सूरदास प्रभु हृदय है तेरे मानहु सार-पुछारी॥८८॥ मलार
हमको सुपनेहू में सोच । जादिनते विछरे नँद नंदन इह तांदिनते पोच।मनो गोपाल आए मेरे गृह हँसि करि भुजा गही। कहा करौं वैरिनि भई निद्रा निमिष न और रही ॥ ज्यों चकई प्रतिविध देखिकै आनंदे पिय जानिासूर पवन मिलि निठुर विधाता चपल कियो जल आनि॥८९ ॥विहागरो॥
हरि विनु वैरिन नींद बड़ी। हो अपराधिनि चतुर विधाता काहे को बनाइ गढी ॥ तन मन धन यौवन सुख संपति विरहा अनल दढी । नँदनंदनको रूप निहारत अहनिाश अटाचढी।। जेहि गोपाल मेरे वश होते सो विद्या न पढी।सूरदास प्रभु हरि न मिलैं तो घरते भली मढी ॥९०॥ मलार।।सुनह सखी ते धन्य नारिराजो अपने प्राणवल्लभकी सपनेहु देखति है अनुहारिकहा करौं चलत श्यामके । पहिलेहि नींद गई दिन चारिदेिखि सखी कछु कहत न आवै झाँखि रही अपमानन मारिश।जादिन ते । नैनन अंतर भयो अनुदिन अति बाढति है वारीिमनहुँ सूर दोउ सुभग सरोवर उमँगि चले मर्यादा डारि॥९१॥मलार॥हमको जागत रैनि विहानी । कमल नैन जगजीवनके सखी गावत अकथ कहानी । विरह अथाह होत निशि हमको विनु हरि समुदसमानी । क्यों करि पावहि विरहिन पारहि विन केवट अगवानी ॥ उदित सूर चकई मिलाप निशि अलि जो मिलै अरविंदहि। सूर हमैं दिन रात
दुसह दुख कहा कहैं गोविंदहि ॥९२॥ मोको माई यमुना जल होइ रही। कैसे मिलौं श्याम सुंदरको वैरिनि बीच वही । केतिक बिच मथुरा औ गोकुल आवत हरि जो नही । हम अवला कछु मर्म न जान्यो चलत न फेंट गही ॥अब पछितात प्राण दुख पावत जात न बात कही । सूरदास प्रभु सुमिरि सुमिरि गुण दिन दिन शुल सही॥९३॥धनाश्री॥निन सलगने श्याम हरिकर आवहि गे। वैजो देखत राते राते फूलन फूलेडाराहरि विन फूल झरीसी लागत झार झरि परत अँगा। फूल बिनन ना जाउँ सखीरी हरिविन कैसे फूल । सुनरी सखी मोहिं राम दोहाई लागत फूल त्रिशूल ॥ जबते पनिघट जाउँ सखीरी वा यमुनाके तीर । भरि भरि यमुना उमडि चलत है इन नैनन के नीर ॥ इन नैननके नीर सखीरी सेज भई घरनाव । चाहतहौं ताहीपै चढिकै हरिजी के दिगजाव ॥ लाल पियारे प्राण हमारे रहे अधर पर आइ । सूरदास प्रभु कुंजविहारी मिलत नहीं क्यों धाइ॥९४॥मलार॥ बहुरो गोपाल मिलै सुख नेह कीजै। नैनन मग निरखि वदन सोभा रस
पीजे ॥ मदन मोहन हृदय उर आसन दीजै । पर न पलक आखिनके देखि देखि जीजै ॥ मान छांडि प्रेम भजन आपनो करि लीजै। सूर सोई सुभग नारी जासों मन भीजै॥९५॥केदारो॥ सखी
री हरि आवै केहि हेत । वै राजा तुम ग्वाल बुलावत इहै परेखो लेताअब शिरछत्र कनक राजत है मोरपंख नहिं भावत । सुनि ब्रजराज पीठिदै बैठत यदुकुल विरद बुलावत।। द्वारपालं अति पौर विराजत दासी सहस अपार । गोकुल गाइ दुहत दुख गोयो सूर भए एवार ॥९६॥मलार॥ चलतन माधौकी गही वाहैं । बार बार पछिताति सबहिते इहै शूलं मनमा । घर बन कछु न सुहाइ रौनि । दिन मनहुँ मृगी दौ दाहै । मिटति न तपति विना घनश्यामहि कोटि धनी छन छाहै ॥ विलपति अति पछिताति मनाहि मन चंद्र गहे जनु राहै । सूरदास प्रभु दूरि सिधारे दुखं
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सूरसागर