'सूरसागर-सारावली। मिलि और जगत सुखलेश ॥ १११ ॥ यहि विधि करि उपदेश सवनको किये भजन रसलीन । सण्डामर्क जो पूंछन लाग्यो तब यह उत्तर दीन ॥ ११२॥ राम कृष्ण अवतार मनोहर भक्तनके हितकाज । सोई सार जगतमें कहियत सुनो देव द्विजराज ॥ ११३॥ येही बात जगत्में नीकी सोइ पढ़त हम आज । जवहीं विप्र कहेउ जो असुरसों पुत्र पढ़त विनकाज ॥ ११४॥ तवहिं असुर प्रह्लाद बुलाये लिये गोद भरिअंक । कहो पुत्र तुम कहा पढ़ीही पूँछत कहेउ निशंक ॥ ११ ॥ श्रवण, कीर्तन, स्मरणपाद, रत, अरचन, वंदनदास । सख्य और आत्मा निवेदन, प्रेमलक्षणा जास ॥११६॥ सुनो पिता हौं यही पढ़यो हूं और बात नहिं जानूं । इनते और मोहिं जो कहियत सो कवहूं नहिं मानूं ॥ ११७॥ दीन्हों पटकि भूप धरणीपर कहेउ विप्रसों खीझ । रेमूरख तू कहा पढ़ायो कैसे देउँ तोहिं रीझ ॥११८॥ जो यह मेरो वैरी कहियत ताको नाम पढ़ायो । देहु गिराय याहि पर्वतते क्षण गत जीव करायो ॥ ११९॥ दीन्हों डारि शैलते भूपर पुनि जल भीतर डारो। डारि अग्निमें शस्त्रनमारो नानाभांति प्रहारो॥ १२० ॥ तऊन घातभई अंगनकी जहँ तहँ राम बचायो । तव नृप आप शस्त्रकर गहिकै बहुतहि त्रास दिखायो । १२१ ॥ कहां है राम कृष्ण वह तेरो यो कहि गर्जन कीन्हीं। घट घट जल थल व्योम धरणि में व्यापक यह ध्वनिलीन्हीं ॥ १२२ तब लै खड्ग खम्भमें मारो भयो शब्द अतिभारी । प्रकट भये नरहरि वपु धरि हरि कटकट करि उच्चारी ॥ १२३ ॥ पकरिलियो क्षणमांझ असुर वल डारो नखन विदारी। रुधिर पानकरि आंत मालधरि जय जय शब्द उचारी ॥ १२४॥ मारो दैत्य दुष्ट इकक्षणमें जय नृसिंह वपुधारे। पुष्पन वृष्टि करत सुर नर मुनि भये भक्त रखवारे ॥ १२५ ॥रमा निकट नाहिं आवत हरिके ऐसो वपु हरिधारो। अज सनकादि देव नारद मुनि जानत रूप निहारो॥१२६॥ अपनी अपनी स्तुति करि के सवहिन यहै सुनायो । गन्धर्व अरु विद्याधर चारण विमल विमल यशगायो ॥१२७॥तब प्रह्लाद आय हरि पद सों शीशनाय यह भाख्यो।जय जय जय जगदीश जगतगुरु मोर अधम प्रण राख्यो ॥१२८||तुमहीं आदिअखंड अनूपम अशरण शरण मुरारादेव देव परब्रह्म परिपूरण भक्तहेतु अवतार ॥१२९॥ जहँ जहँ भीरपरत भक्तनको तहँ तहँ होत सहाय। स्तुतिकार मनहर्ष बढ़ायो लेहनजीभ कराय ॥ १३०॥ तब वोले नरसिंह कृपाकार सुनहु भक्त मम बात । मन्वन्तर को राजदियो तोहिं धरयो शीशपर हाथ।।१३१॥ निर्गुण सगुणहोय मैं देख्यो तोसों भक्त न पाऊोजहँ जहँ भीर परत भक्तनको तहां प्रकट हो आऊं ॥ १३२ ॥ सुत प्रहाद प्रतिज्ञा मेरी तोको कबहुँ न त्यागू । जैसे धेनु.बच्छको चाटत तैसे मैं अनुरागू ॥ १३३ ॥ जो मांगों सो देहुं तुरतही नहिं विलम्ब कछु लागोतव प्रहाद यही वर माग्यो चरण कमल अनुराग॥१३४॥करि कृपा दीन्हों करुणानिधि अटल भक्ति थिरराजाअन्तर्धान भये हरि तहँते सफलभये सबकाज।।१३६॥नारदरूप जगत उद्धारण वि चरत लोकनमायाकरि उपदेश ज्ञान हरिभक्तहि अरु वैराग्यहढाय।।१३६॥स्वायंभुव शतरूपा दोऊ कहियतहैं अवताराजगको धर्म प्रचार किये भुव भक्त कर्म आचार ॥३१७॥करुणाकर जलनिधिते प्रकटे सुधाकलश लेहाथाआयुरेद विस्तारण कारण सब ब्रह्माण्डके नाथ ॥१३८॥ क्षत्रिय दुष्टबढ़े जो भुवपर लियो कृष्ण अवतारापरशुराम कै द्विजथापे दूरकियोभूभार॥१३९॥रघुकुलवंश चतुर चूड़ामणि पुरुषोत्तम अवतार । दशरथके गृह जन्म लियो हरि रूपराम सुकुमार ॥ १४० ॥ रावण कुम्भकर्ण असुराधिप बढ़े सकल जगमाहिं । सबहिन लोकपाल उन जीते कोऊ बाच्योनाहि ॥१४१॥ सकल देव मिलि जाय पुकारे चतुराननके पास । लै शिवसंग चले चतुरानन क्षीरसिन्धु
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