यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(४८१)
दशमस्कन्ध-१


जाइ वेगि पठवहिं गृह गाइनिको द्वैहे ॥ दीजै छॉडि नगर वारी सब प्रथम चोरि प्रतिपारो। हमहं जिय समुझ नहि कोऊ तुम तहि हित हमारो ॥ आजहि आज काल्हि काल्हिहि कारे भलो जगत यश लीन्हों। आजहुँ काल्हि कियो चाहत हो राज्य अटल करिदीन्हों ॥ परदा सूर बहुत दिन चलती दुहुँदुनि फवती लूटिअिंतहु कान्द आयहो गोकुल जन्म जन्मकी बूटि॥२॥संदेशो देवकोसों कहियो । होतो धाइ तुम्हारे सुतकी मया करति रहियो । यद्यपि टेव तुम जानत उनकी तक मोहिं कहि आवे । प्रातहि उठत तुम्हारे कान्हको माखन रोटी भावे ॥ तेल उबटनो अरु तातो जल ताहि देखि भजिजातेाजोइ जोइ मांगत सोइ सोइ देती कम क्रम करि करि न्हात।सूर पथिक सुनि मोहि रैनि दिन वढयो रहत उरसोच । मेरो अलक लडैलो मोहन बहे करत सँकोच ॥३॥सोरठ ॥ मेरो कान्ह कमलदल लोचन । अवकी वेर बहरि फिरि आवहु कहालगे जिय सोचन ॥ यह लालसा होत जिय मेरे बैठी देखतरहीं । गाइचरावन कान्हकुँवरसों भूलि न कबहूँ कहौं ॥ करत अन्याय न वरजी कवहूं अरु माखनकी चोरी । अपने जियत नैन भरि देखों हरि हलधरकी जोरी।। एक वेर वजाहु इहाँलों अनत कहूँके उत्तराचारिह दिवस आनि सुखदीजे सूर पहुनई सुतर ॥४॥ अथ पंथीनाक्य देवकी मति ॥ आगावरी ॥ हों इहां गोकुलहीते आई । देवकी माई पाँइ लागति हो यशुमति इहां पठाई ।। तुमसों महरि जुहार को है कहहु तो तुमहिं सुनाऊं । वारक बहुरि तुम्हारे सुतको कसेहुँ दरशन पाऊं ॥ तुम जननी जग विदित सूरप्रभु हौं हरिकी हितधाइ । जो पटबहु तो पाहुन नाते आवहि वदन दिखाइ ॥५॥ सारंग ॥ जो परि राखतही पहिचानि । तो अब के वह मोहन मूरति मोहिं देखावहु आनि ॥ तुम रानी वसुदेव गेहनी हौं गवारि व्रजवासी । पठे देह मेरो लाड़ लड़ती वारों ऐसी हाँसी ॥ भली करी कंसादिक मारे सब सुरकाज किये। अब इन गेयन कोन चराव भरि भारलेत हिये ॥ खान पान परिधान राजसुख जो कोउ कोटि लडा । तदपि सूर मेरे वारे कन्हैया माखनही सचुपावे ॥६॥ सोरठ ।। मेरे कुँचर कान्ह वितुं सब कछु वैसेहि धरयो रहे । को उठि प्रात होत ले माखन कोकर नेत गहै ।। सुने भवन यशोदा सुतके गुनिगुनि शूलसह । दिन उठि घेरतही घरग्वारिनि उरहन कोउ न कहै ॥ जो ब्रजमें आनंद हो तो मुनिमन साह नगहे । सूरदास स्वामी विनु गोकुल कॉडीहू नलहै ॥६॥ अथ गोपीविरह अवस्था परस्परवर्णन ॥सारंग॥ चलत गुपालके चले। यह प्रीतमसों प्रीति निरंतर है ना अरघपले ॥ धीरज पहिल करी चलिवे की जसी करत भजे । धीर चलत मेरे ननन देखे तिहिछिन अंशहले ॥ अंश चलत मेरी वलयन देखे भए अंग सिथले। मनचलि रह्यो हुतो पहिलेही सबै चले विमले । एक न चलै अव प्राण सूर प्रभु असलेट सालसले ॥ मलार ॥८॥ लोग सब कहत सयानी बातें । सुनतहि सुगम कहत नहिं आ वत बोलि जाइ नहि ताते ॥ पहिले अग्नि सुनत चंदनसी सती बहुत उमहै। समाचार ताते अरु सारे पाछे जाइलहे । कहत फिरत संग्राम सुगम अति कुसुमलता करिवार ॥ सूरदास शिरदेत शूरमा सोई जान व्यवहार ॥ ९ ॥ वातनि सब कोइ जिय समुझावै । किहि विधि मिलनि मिले वै माधी सो विधिकोउ न वताव । यद्यपि जतन अनेक रचि विधि सारि अशन विरमा । तदपिहठी हमारे नेनन और न देखो भावे । वासर निशा प्राणवल्लभ तजि रसना और न गावै । सूरदास प्रभु प्रेमहि लगिक कहिये जो कहि आवे॥१०॥ नट ॥ सब मिलि करहु कछू उपावामार मारन चढेउवि, रहिनि करहु लीनो चाव ॥ हुताशन ध्वज उमगि उन्नत चलेउ हरि दिशवाउ । कुसुम शर रिपुनंद वाहन हरपि हरपित गाउ ।। वारि भव सुत तात नावरि अब न करिहों काउ । बार अवकी प्राण