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दशमस्कन्ध-१० (४७९) चातकी बूंद भई हो हेरत हेरत रही हिराइ ८॥तश्रीसखीरी काके मीत अहीराकाहेको भरिभरि ढारति हो इन नैन राहके नीर ।। आपुन पियत पियावत दुहि दुहिं इन धेनुनके क्षीर। निशि वासर छिन नहिं विसरतहै जो यमुनाके तीर ॥ मेरे हियरे दौं लागतिहै जारत तनुकी चीर । सूरदास प्रभु दुखित जानिकै छांडि गए वे परि ।।८२ ॥अथ श्यामरंगको तरक वदति ॥ मलार।। सखीरी श्याम सवै इक सार । मीठे वचन सुहाये वोलत अंतर जारनहार । भवर कुरंग काग अरु कोकिल कपटिनकी चटसार । कमल नयन मधुपुरी सिधारे मिटि गयो मंगलचार ॥ सुनहु सखीरी दोप न काहू जो विधि लिखो लिलार । यह करतूति इन्हैकी नाई पूरव विविध विचार। उमगी घटा नापि आवै पाव. सप्रेम की प्रीति अपारासूरदास सरिता सर पोपत चातक करत पुकार८३॥राग मलार।।सखीरीश्याम कहा हितु जानकाऊ प्रीति करे कैसेहूँ वे अपनोगुण ठान।देिखो या जलधरकी करनी वरपत पोपै आ नासूरदास सरवस जो दीजै कारो कृतहि न मान॥८॥सारंगा तिनहि न पतीजैरी जे कृतहीन माने ज्यों भँवरा रस चाखि चाहिकै तहां जाइ जहां नवतन जानेकोयल काग पालि कहा कीन्हों मिले कुलहि जब भए सयाने । सोई घात भई नंदमहरकी मधुवन तेजो आने॥ तवतोप्रेम विचार न की न्हों होत कहा अवके पछिताने । सूरदास जे मनके खोटे अवसर परे जाहिँ पहिचाने।।८५॥धनाश्री।। तयते मिटे सब आनंद । या ब्रजके सबभाग संपदा लैजु गए नँदनंद ॥ विह्वल भई यशोदा डोल त दुखित नंद उपनंद । धेनु नहीं पय श्रवति रुचिर मुख चरति नाहिं तृण कंद ॥ विषम वियोग दहत उर सजनी वाढिरहे दुखदंद। शीतल कौन करैरी माई नाहिं इहां हरिचंदारथ चढि चले गहे नाहि काऊ चाहिरही मतिमंद । सूरदास अब कौन छोड़ावै परे विरहके फंद॥८६॥कान्हरो। अव वह सुरति होत कत राजनि । दिनदश रहे प्रीति करि स्वारथ हित रहे अपने काजनि ॥ सबै अजान भए सुनि मुरली वधिक कपटकी वाजनि । अव मन थक्यो सिंधुके खग ज्यों फिरि फिरि शरन जहाजनि । वह नातो तादिनते टूट्यो सुफलकसुत मगभानानि । गोपीनाथ कहाइ सूर प्रभु मार तही कत लाजनि ॥८॥गौरी॥ ब्रजरी मनो अनाथ कियो । सुनरी सखी यशोदानंदन सुख संदेह दियो ॥ तब हम कृपा श्यामसुंदरकी कर गिर टेकि लियो । अरु प्रति गाइ वच्छ ग्वालनको जल कालिंदी पियो । यह सब दोपहमहि लागत है विठुरत फटयो नहियो। सूरदास प्रभु नंदनंदन विनु कारण कौन जियो ॥८८फेदारो।। अव तो हैं हम निपट अनाथ । जैसे मधु तोरेकी माखी त्यों हम विनु ब्रजनाथ ।। अधर अमृतकी पीर मुई हम बालदशाते जोरि । सो छिडाय सुफलक सुत लैगयो अनायासही तोरि ॥ जौलगि पानि पलक मीडत रही तौलगि चलि गए दूरि । करि निरंध निवहे दै माई आंखिन रथ पदधूरि ॥ हम निशि दिन करि कृपणकी संपति कियो नकबहूं भोगासूर विधाता लिखि राखी वह कविजाके मुख भोग८९॥अथ नंद यशोदा वचन परस्पर ॥ रामकली ॥. इक दिन नंद चलाई वात । कहत सुनत गुण राम कृष्णके हौ आयो परभात ॥ वैसेहि भोर भयो घशुमतिको लोचन जल नसमात । सुमिरि सनेह विहरि उर अंतर हरि आवत रिजात ॥ यद्यपि वैवसुदेव देवकी हैं निज जननी तात । वार एक मिलि जाहु सूर प्रभु धाइहूनके नात ॥१०॥गौरी।। चूक परी हरिकी सिवकाई। यह अपराध कहांलौं कहिए कहि कहि नंदमहर पछिताई।कोमल चरण कमल कंटक कुश हम उनपै वनगाइ चराई । रंचक दधिके काज यशोदा बाँधे कान्ह उलूख ल लाई ॥ इंद्र कोप जानि ब्रज राखे वरुन फांस मान मेरी निठुराई । सूर अजहुँ नातो मानत है प्रेमसहित करै नंद दोहाई ॥ ९१ ॥ रागसोरठ ॥ हरिकी एकौ वात नजानी । कही कंत कहा