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सूरसागर


कुविजा नृप दासी हम सबकरी निरासा ॥ लोचन जलधार अगम विरहनदी वाढी । सूरश्याम गुण सुमिरत बैठी कोउ ठाढी॥७०॥धनाश्री॥ कुविजा श्याम सुहागिानि कीन्ही । रूप अपार जाति नहिं चीन्ही॥ आपु भए पति वह अरधंगी। गोपिन नाव धरयो नवरंगी॥ वै वह रवन नगरकी सोडातैसोइ संग बन्यो अव दोउ ॥ एक एकते गुणन उजागर । वह नागरि वैतौ अतिनागरा ॥ वह जोई कहत श्याम सोइ मानत ।निशिदिन वाके गुणहि बखानता । जानि अनोखी मनहि चोरावै । सूर प्रभू अब नहिं ब्रज आवै ॥७१॥ रामकली॥ कुविजा नई पाई जाइ । नवल आपुन बनी हवेली नगर रही खेलाइ ॥ दास दासी भाव मिलिगयो प्रेमते भए एक । निठुर कै सखी गए हमते जानि साह अनेक ॥ लैन जब अक्रूर आयो तुरत लाग्यो कान । नई कुविजा उन सुनाई सूर प्रभु मन मान॥७२॥ धनाश्री ॥ कैसेरी यह हरि करिहै। राधाको तजिहैं मनमोहन कहा कंस दासी धरि है॥ कहा कहति वह भई रानी वै राजा भए जाइ वहां। मथुरा वसत लखत नहिं कोऊ को आयो को रहत कहां ॥ लाजवेचि कूवरी विसाही संग न छांडत एक घरी । सूर ताहि परतीति नकाहू मनसि। हात यह करनि करी।।७३॥कुविजा नहिं तुम देखीहै । दधिवेचन जब जाति मधुपुरी मैं नीके करि पेखी है ॥ महल निकट मालीकी बेटी देखत जहि नर नारि हँसे । कोटि बार पीतरि ज्यों डाही कोटिवार जो कहा कसै ॥ सुनि यह ताहि सुंदरी कीन्ही आपु भए ताको राजी । सूर मिलै मन जाहि जाहिसों ताको कहा करै काजी ॥७४॥ कोटि करो तनु प्रकृति नजाइ । ए अहीर वह दासी पुरकी विधिना जोरी भली मिलाइ ॥ ऐसेनको मुख नाव न लीजै कहा करौ कहि आवत मोहिं । श्यामहि दोष किधौं कुविजाको इहै कहाँ मैं बूझति तोह ॥ श्यामहि कहा दोष कुविजाको चेरी चपल नगर उपहास । टेढी टेकि चलत पग धरणी यह जानै दुख सूरजदास ॥७५॥ नट ॥ हरिही। करी कुविजा ढीठ। टहल करती महल महलनि अब संग बैठी पीठ ॥ नेकही मुँहपाइ भूली अति गई इतराइ । जात आवत नहीं कोऊ इहै कहै पठाइवि दिना गए भूलि तोको दिवस दशकी वाता सूर प्रभु दासी लोभाने ब्रज वधू अनखात ॥ ७६॥नट॥ देखो कूवरीके काम । अब कहावत पाटरा नीबड़े राजा श्याम ॥ कहत नहिं कोउ उनहि दासी वे नहीं गोपाल । वै कहावत राजकन्या वै भए भूपाल ॥पुरुष केरी सबै सोहै कूवरी केहि काजासूर प्रभुको कहा कहिए बेचि खाई लाज ॥७७ ॥यह सुनि हमाहं आवति लाज । जाय मथुरा कंस मारयो कूवरीके कान ॥ लोग पुर में वसत ऐसेइ सबन इहै सोहात । कबहुँ कोऊ कहत नाहीं श्याम आगे बात ॥ कहा चेरी नारि कीन्ही । कहा आपुन होत । तुम बडे यदुवंश राजा मिले दासी गोत ॥ अजहुँ कहै सुनाइ कोई करें कुवि जा दूरि। सूरडाहनि मरत गोपी कबरीके झुरि ॥७८॥ विलावल ॥ कंस वध्यो कुविजा के काज। और नारि हमको न मिली कहुँ कहा गँवाई लाज ॥ जैसे काग हंसकी संपति लहसुन संग कपूर । जैसे कंचन कांच बरावरि गेरू काम सिंदूर ॥ भोजन साथ शूद्र ब्राह्मणके तैसोइ उनको साथ । सुनहु सूर हरि गाइ चरैया तौ भए कुबिजा नाथ ॥७९॥ गौरी ॥ भामिनि कुविजासों रँग राते । राजकुमार नारि जो पवते तो कवहिन अंग समाते ॥ रीझे जाइ तनक चंदन लै मधुवन मारग जाते । ताकी कहा बडाई कीजै ऐसे रूप लुभाते ॥ ए अहीर वह कंसकी दासी जोरी करी विधाते । ब्रजवनिता त्यागी सूरज प्रभु बूझी उनकी बाते॥८०॥ आसावरी॥ वै कहा जानैं पीर पराई।सुंदर श्याम कमल दल लोचन हरि हलधरके भाई ॥ मुख मुरली शिर मोर पखैआ बन बन धेनु चराई । जे यमुना जलरंग रंगे हे ते ब्रजहूं नहिं तजत कराई ॥ उहँई भूले देखि कूवरी हम सवं गए विसराइ । सूर