जापर होइ । ताहि कछु यह बहुत नाही हृदय देखो जोइकहा संशय करत याको कितिकहै यह । बात । असुर सैन्य सँहारि डारे भक्तजनसों नात ॥ हरन करन समरथ येईहैं कहौं वारंवार । सूर हरिकी कृपाते खल तरिगए संसार ॥ ३८ ॥ किंसवधलीला दूसरी ॥ विलावला ॥ कृष्ण कृपा सबहीते न्यारीको टि करै तप नहीं मुरारी ॥ भाव भजन कुविजा भई प्यारी। दनुज भाव विनु मारे डारी ॥ प्रथम हि रजक मारि पुरआए । धनुषयज्ञ कहँ कंस बोलाए।तोरिक दंड वीर सब मारे । हित कुविजा के धाम सिधारे । रूपराशि निधि ताको दीन्हों। आवन कह्यो गमन तब कीन्हो ॥ तहां कुवलिया राख्यो द्वारे। जात श्याम बलराम विचारे ॥ माली मिल्यो माल पुहुप लैक । लीन्हों कंठ इया म अति रुचिक ॥ मनकामना तुरत फल पायो।कोटि कोटि मुख स्तुति गायो ॥ आतुर गयो कुवलिया पासा। सूरज चंद्र धराणे परगासा ।। बालक देखि महावत हरष्यो। कान्ह पूंछ धरि तुछकार परष्यो ॥ कौतुक करि मतंग तब मारयो । गहि पटक्यो तनु नेक न दारयो । दुहुँन एक इक दंत उपारयो। जहां मल्ल तहको पग धारयो । देखत रूप त्रास जिय आन्यो। मन मन काल आप नो जान्यो । तब कोमल दरशे यदुराई । तुरत गए आगे सब धाई ॥ मारे मल्ल एक नहि उवरयो।। पटकत धरणि नृप श्रवणन घुमरयो । क्रोध सहित तब कंस प्रचारयो। ताहि प्रगटि तुरतहि तेहि मारचो ॥ अमर नाग नर कहि कहि भाखासदा आपने जनको राखै ॥ राजा उग्रसेन कहवाए । मात पिता वंदिते छोराए ।। इतने काज किए हरि नीके। कुविना प्रेम बँधे हरि हीके ॥ आतुर हरि ताके गृह आए। रानिन बोधि महल नहिं भाए । चितवत मंदिर भए अवासा । महल महलं लाग्यो मणि पासा ॥ जवाहिँ सुने कुविजा हरि आए । पाटम्बर पांवडे डसाए ॥ कुबिना ते भई राजकुमारी । रूप कहा कहाँ कृष्ण पियारी ॥ टेढी जे हरि सूधी कीन्हीं। लक्षण अंग अंग प्रति दीन्हीं ॥ राजा हरि कुविजा पटरानी। मथुरा घर घर सबही जानी ॥ गोप सखा यह सुनत न माने । त्रासहि में सब रहत सकानेमारयो कंस सुनत सबसके । वलमोहन आए नहिं दके ॥ बजते चले भए षट यामा । व्याकुल महरि होति लैनामा ॥ प्रजा जानि मन मन डरपाही कैसे वल मोहन ब्रज जाहीं ॥ यहि अंतर हरि आए तहँई । नंद गोप सब राखे जहँई ॥ नृप उद्धव अरहि लीन्हों। तहां गवन प्रभु सूरज कीन्हों॥ ३९ ॥ विलावल ॥ यदुवंशी कुल उदित कियोकिस मारि पुहुमी उद्धारी सुरनं कियो निर्भय हियो।घर घर नगर अनंद बधाई मन वंछित फल सबनि लहो । निगड तोरि मिलि मात पिता को हरष अनल करि दुखहि दहो। उग्रसेन मथुरा कार राजा ऐसे प्रभु रक्षक
जनको । कहुँ जनमें कहुँ कियो पान पय राखि लेत भक्तन पनको ॥ आपुन गए नंद जहँ वासा हलधर अग्रज संग लिए । सूर मिले नंद हरषवंत है ब्रज चलि है अति हरष हिए ॥ ४०॥ अरस परस सब ग्वाल कहैं । जब मारयो हरि रजक आवतही मन जान्यो हम नहिं निवहैं ।। वैसो धनुष तोरि सब योधा तिन मारत नहिं विलम करयो। मल्ल मतंग तिहूंपुर गामी छिनकहि में सो धरणि परयो । वैसे मल्लनि दाँव विसारे मारि कैस निरवंश कियो। सुनहु सूर येहैं अवतारी इनते प्रभु नहिं और वियो॥ ४१ ॥ नंद गोप सब सखा निहारत यशुमति सुतको भावनहीं । उग्रसेन वसुदेव उपंगसुत सुफलकसुत वैसे संगही । जवहीं मन न्यारो हार कीन्हों गोपन मन इह व्यापि गई। बोलि उठे यहि अंतर मधुरे निठुर ज्योति जो ब्रह्ममई ॥ अति प्रतिपाल कियो तुम हमरो सुनत नंद जिय झझकि रहे । सूरदास । प्रभुकी लीला यह वसुदेवसों की मोसों वचन कहे ॥ ४२ ॥ विलावल ॥ काहि कहत प्रतिपाल
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सूरसागर