(१७२). सूरसागर।. पछतात ॥ निहचै जननी जानि कंठधार रोवन लागी । तब बोले वलराम मातु तुमते को भागी॥ बारवार देवै कहै कबहूं गोद खिलाए नाहिं । द्वादश बरस कहारहे मात पिता बलि जाहि ।। पुनि पुनि बोधत कृष्ण लिखौ नाहि मेटै कोई। जोइ जोइ मनकी साध कहाँ मैं करिहों सोई। जे दिन गए सुते गए अब सुख लूटहु मात ॥ तात नृपति रानी जननि जाके मोसों तात। जो मन इच्छा होइ तुरत देओ मैं करिहौं । गगन धरणि पाताल जात कतह नहिं डरिहौं। मात हृदयकी जब कही तब मन बढ्यो आनंदामहर सुवन मैं तो नहीं मैं वसुदेवको नंदाराजकरौ दिन बहुत जानिको कहैं अब तुमको। अष्टसिद्धि नवनिद्धि देहुं मथुरा घर घरको । रमा सेवकिनी देउँ करि करजोरै दिन याम|अब जननी दुख जिनि करौ करौ जु पूरन कामाधनि यदुवंशी श्याम चहुं. युग चलत बड़ाई। शेषरूप मैं राम कहत नहि वात बनाई।सूरज प्रभु दनु कुल दहन हरन करन: संसार ॥ ते पाए सुत तुमहि करि करौ जु सुख विस्तार ॥२२॥ देवगंधार ॥ मेरे माथे राखो चरन । || दीन दयालु कंस दुखभंजन उग्रसेन दुखहरन ॥ परम मुदित वसुदेव देवकी गई पाइन परन। मेरोः । दोष मेटि करुणा कार लैचल गोकुल धरन ॥ तेजन पार भए मनमोहन जे आए तुव शरन।। आए सूरदासके जीवन भवजल नवका तरन ॥ रामकली ॥ तब वसुदेव हरपित गात श्याम रामहि कंठ लाए हरषि देवै मात । अमर देव दुंदुभि शन्द भयो जैजैकार ॥ दुष्टदलि मुख दियो संतनः । ए वसुदेवकुमार । दुखगयो वहि हरष पूरन नगरके नर नारि ॥ भयो पूरव फल संपूरन लह्यो सुत | दैतारि। तुरत विपन बोलि पठए धेनु कोटि मँगाइ[सूरके प्रभुब्रह्म पूरण पाइ हरपे राइ॥२३॥काफी।। आजुहो निसान बाजे वसुदेव राइकै । मथुराके नर नारि उठे सुखपाइकै ॥ अमर विमान सब करें हरषाइकै । फूले मात पिता दोऊ आनंद बढाइकै ॥ कंसको भंडार सब देत हैं लुटाइकै । धेनु जे संकल्प राखी लई ते गनाइकै ॥ ताँबे रूपे सोने सजि राखी नै बनाइकै । तिलक विप्रन बंदि दई वै दिवाइकै मागध मंगन जन लेत मनभाइकै ॥ अष्टसिद्धिं नवनिधि आगे ठाढी आइकै । सब पुर नारि आई मंगलन गाइकै ॥ अंबर भूपण पठै दई पहिराइकै । अखिल भुवन जन कामना पुराइकै पुर जन धनु देतहैं लुटाइकै ॥ सूर जन दीन द्वारे ठाढो भयो आइकै । कछू कृपांकरि दीजै मोहकौं दिवाइकै॥२४॥ यज्ञ उपवीतउत्सव ॥ बिलावलौविसरचौ कुल व्यवहार विचार। हरि हलधर को दियो जनेऊ करि षटरस जेवनार ॥ जाके श्वास उसास लेतमें प्रगटभए श्रुति चार । तिन गायत्री सुने गर्गसों प्रभु गति अगम अपार ॥ विधिसों धेनु दई बहु विप्रन सहित सर्व लंकार ।। यदुकुल भयो परम कौतूहल जहां तहां गावत नरनार ॥ मातदेवकी परम मुदितकै देत निछावर वारंवार । सूरदासकी इहै अशीशहै. चिरंजीवो दोउ नंदकुमार ॥२६॥ धनाश्री ॥ आजु परम दिन मंगल कारी । लोक लोक को टीको आयो मुदित सकल नर नारी॥.शिव- सुरेश शेष औरवहुको गनै चतुरानन करतारी । हरकर पाट बंध नेवछावार करत रतन पटसारी॥ बाजत ढोल निसान शंख रव होत कुलाहल भारी । अपने अपने लोक चले सव मूरदा. स बलिहारी ॥२६॥बिलावल। जव यदुपति कुल कसहि मारयो । तिहूँ भुवन भयो सोर पसारयो । तुरत माचते धरनि गिरायो । ऐसेहि मारत विलम न लायो । केश गहे पुहुमी. घिसटायो । डारि यमुनके बीच पहायो॥ जा कंसहि तिहुं भुवन डराई । ताकों मारयो हलधर भाई ॥ जाके धनुष टकोरत हाथा। आसन छांडि भजे सुरनाथा ॥ मारत ताहि बिलंब न कीन्हों। उग्रसेनको राजस दीन्हों। जैही जै वसुदेव कुमारा । जै हो जे तुम नंद दुलारा ॥ सुर देवी देवै धनि मैया। धन्यः ।।
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