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६शमस्कन्ध-१० (४७१) शिर धराइ चमर अपने करदारे ।। ठाढ़े आधीन भए देव देव भाषै । अपने जनको प्रसाद सारी शिर राखै ॥ मोको प्रभु इती कहा विश्वभर स्वामी । घट घटकी जानतहो तुम अंतर्यामी॥ तौ नृप कहत कहा तुमको यह केती।सेवा तुम जेती करी पुनि देहौ तेती॥रजक धनुप गज मल्लन कंस मारि काजा।सूरज प्रभु कीन्हो तव उग्रसेन राजा॥१६॥ विलावल। उग्रसेनको दियो हरि राज । आनंद मगन सकल पुरवासी चमर दुरावत श्रीव्रजराज ।। जहां तहां ते यादव आए डरे डरे जे गए पराइ । मागध सूत करत सब स्तुति जै जै जै श्री यादवराइ ॥ युग युग विरद इहै चलि आयो भए पलिके द्वारे प्रतिहार । सूरदास प्रभु अज अविनाशी भक्तन हेतु लेत अवतार।।१७॥ विलावल ॥ मथुरा लोगनि वात सुनी यह उग्रसेनको राज दियो । सिंहासन बैठार कृपाकार आपु हाथ सौ चमर लियो॥ मात पिताको संकट हरिहैं देवन जै ध्वनि शब्द सुनायो । रानी सबै मरत ते राखी उनते प्रभु नहिं और वियो । अवहिं सुनी वसुदेव देवकी हरपित छैहै दुहुनि हियो । सूरदास प्रभु आइ मधुपुरी दरशनते पुरलोग जियो।।रामकली।मथुराके लोगन सुखपाए। नटवर भेप काछनी काछे नंदनंदन सँग अङ्कर के आए ॥ प्रथमाह रजकमारि अपनेकर गोपवृंद पहिराए। तोरिधनुप लीला नटनागर तब गजखेल खिलाएरंगभूमि मुष्टिक चाणूर हति सुजवल तार बजाए । नगरनारि दाह गारि कंसको अजगुत युद्ध बनाए। वरपहिं सुमन अकाश महाध्वनि देव दुंदुभी बजाए। चढि चढि अमर विमान परमसुख कौतुक अमर छाए ॥ कंस मारि सुरराज काज करि उग्रसेन शिरनाए। मात पिता वंदिते छोरिहैं सूर सुयश गुणगाए॥१९॥रामकलीमथुरा घर घरनि यह बात। रजक धनुप गज मल्लमारे तनकसे नँदतात ॥ धन्य माता पिता धनि वह धन्य धनि वह राति । जब लियो अवतार धरणी धनि धन्य धनि सो भातिहिंसकेसे जोट दोऊ असुर कियो निपाता सूर जोधासवै मारे कहाजानत घात२०॥अध्यायः॥ ४५ ॥ वसुदेवदर्शन कुविना गृह आगमन नंदविदा गुरुपुत्र हेतुः ॥ सुन्यो वसुदेव दोउ नंद सुवन आए। त्रियासों कहत कछु सुनति हैरी नारि रातिहू सुपन कछू ऐसे पाए ॥ गए अक्रूर तिहि नृपति माँगे वोलि तुरत आए आनि कंस मारे। कहा पिय कहत सुनिहै बात पौरिया जाय कैहै रहोमटधारे ॥ दिये लोचन ढार नारि पति परस्पर कहा हम पाप करि जन्म लीन्हों। सात देखत वधे एक व्रज दुरिवच्यो इते पर बांधि हम पंगु कीन्हों॥मारि डारे कहा बंदिको जीवनधग मीच हमको नहीं मनन भूल्यो । मरै वह कंस निर्वस विधना करै सुर क्योंहूं होइ निर्मूल्यो।।२१। नतश्री।इहै कहत वसुदेव त्रियाजिनि रोवहु हो । भाग्य विवस सुख दुःख सकल जग जोवहु हो । जलदीन्हे कर आनि कहत मुख धोवहु नारी। कहियतहै गोपाल हरन दुख गर्वप्रहारी ।। कबहुँ प्रगट वै होइँगे कृष्ण तुम्हारे तात । आजु काल्हि हरि आइह यह सपनेकी बात । अब जिनि होहि अधीर कंस यम आइ तुलाना । देखत जाइ विलाइ झार तिनुका कार जानो। ऐसो सपनो मोहिं भयो त्रिया सत्यकरि मानि । त्रिभुवनपति तेरे सुवन, तोहिं मिलेंगे आनि ॥ यहि अंतर हरि को मात पितु कहां हमारे । तहां लैगए अक्रूर श्याम बलराम पधारे॥ वज्र शिला द्वारे दियो दरशन तेगयो छूटि । सहज कपाट उपरिगए ताला कूची दूटि ॥ जो देखे वसुदेव कुँवर दोउ काके ढोटाए आए । दरश दियो तेहि प्रेम प्रथम जो दरश दिखाए । धाइ मिले पितु मातको यह कहि मैं निजुतात । मधुरे दोउ रोवन लगे जिनि सुनि कंस डरात ॥ तुरत. बंदिते छोरि कह्यो मैं कंसहि मारयो । योधी सुभट संहारि मल्ल कुवलया पछारयो ॥ जिय । अपने जिनि डरकरी मैं सुत तुम पितु मात । दुख विसरौ, अब सुख करौ अब काहे |