दशमस्कन्ध-१० लक्षि रंजित हृदय नीलधन शीत तनु तुंग छाती। देखि रही भेप अति प्रेम नर नारि सब वदति तजि भीर रति रीति रातीमत्त मातंग वल अंग दंभोलेि दल काछनी लाल गजमाल सोहै । कमल दलनैन मृदुवैन वंदित वदन देखिसुरलोक नरलोक मोहै ॥ वाहुसों बाहु उर जानु सों चरण धरि प्रगट पेलें। धमकदै चूंघरनि भीउभय बंधुजन सुभट पद पाणिधरनिधरति मेलें ॥ चित्तसों चित्त मनबंधु मनवधुसों दृष्टिसों दृष्टि धरि शिर चपैया । जानि रिपुहानि तजिकानि यदुराजकी बकि उठि फूलि वसुदेवरैया ॥ ऐसेही राम अभिराम सुरशेप वपुगहि व मुष्टिक महामल्ल मारयो। तोरि निज जनक उरकेशगहि कंसनर सूर हरि मंचते दुप्पडारयो॥ ॥राग भैरों। श्याम वलराम रंगभूमि | आए। बली लखौ रूप सुंदर परम देखियो प्रवल बल जानि मनमें सकाए ॥ कह्यो गजकुवलिया हयो भयो गर्व तुम जानि परिहै भिरत सँग हमारे । कालसों भिरैं हम कौन तुम वापुरे पै हृदय धर्म रहियो विचारे।।श्याम चाणूर बलिवीर मुष्टिकभिरे शीशसोशीश भुज भुज मिलावेंविउनै गहत वे दौरि उनको गहत करत बल छल नहीं दांव पावै ॥ धरि पछारयो दोउ वीर दुहुन मल्लको हरपि कहोसुर ए नंद दोहाई।सूर प्रभु परस लहि लह्यो निर्वान तेहि सुरन आकास जैजैत ध्वनि सुनाई ||गुंडमलार, गयो कर श्याम भुजमल्ल अपने धाइ झटकि लीन्हो तुरत पटकि धरनीभिटक अति शब्दभयो सुटक नृपके हिए अटक प्राणन परयो चटक करनी ॥ लटकि निर्खन लग्यो मटक सब भूलिगयो हटक हकै गयो गटकि शिलसो रह्यो मीचु जागी।मृएको गद मरदिके चाणूर चुरुकुट करयो कंसको नुकंप भयो भई रंगभूमि अनुरागरागी ।मल्ल जेजे रहे सबै मारे तुरत असुर जोधा सवे तेउ संहारे॥धाइ दूतन कह्यो मल्लकोउ नहिं रहे सूर वलराम हरि सब पछारे ॥६॥ अध्याय ॥ १४ ॥कंसवध उग्रसेन रानहेतु ॥ फल्याण ।। मारे सब मल्ल नंदके कुमार दोऊ । कोट सवन भूलिगए हांकदेत चकृत भए लपकि लपकि हए तुरत उवरयो नहि कोजाजोधा चितवतहि मरेहहरिहहरि धरनि परे ज्वालान्यों जरे डरे सबभए विनप्राना । तारागन लिपितहोत जैसे दिन प्रकाश यह सुनि नृप भए निराश रह्यो नहिं ज्ञाना । गलबल सब नगर परचो प्रगटे यदुवंशी । द्वारपाल इहै कही जोधाकोउ वचे नाहिं कांधे गजदंत धरे सूर ब्रह्म अंशी ॥७॥ गुंडमलार ॥ नंदके नंद सब मल्लमारे निदरि पौरिया जाय नृपपै पुकारे ॥ सुनत ठाटो भयो हांक तिनको दयो दनुज कुल दहन तातन निहारे। सुभट बोले सबै आइहै पुनि को मारिडारे सबै मल्ल मेरे । अचगरी कर रहे वचन एई कहे डर नहीं करत सुतहि अहिर केरे॥ रंग महलनि खरचो कहारे तुम कह्यो ढाल कर खड़ तहांते चलावै। जिवत अब जाहुगे बहुरि करिही राज नहीं जानत सूर कहि सुनावै॥८॥राग धनाश्री। भलेरे नंदके छोहरा डर नहीं कहा जो मल्लमारे विचारे । पारही पारदै हांकये गए कहां आपने सम असुरते हँकारे ॥ पौरि गाने करौ द्वार वीरनि कहे आप दल कारि मुख उदय गारिदकै । बहुरि घर जाहुगे धेनु दुहि खाहुगे जानदेही तुमहिं प्राणलैकै ॥ कोऊ नहींरे वहांली दयावतं कहा पग द्वैक परनि हरि सन्मुख आए । चकृत हैकै गयो मीच दरशन भयो कहारे मीच यह कहि सुनाए ॥ श्याम बलरामको नाम लैले कहत मीच आई लेन तुमहिं बाजै । सूरप्रभु देखि नृप क्रोध पुरी घरी कस्यो कटिपीतपट देव राजै॥९॥ मारू ।। कंध दंत धरि डोलंत रंगभूमि वलहरि । उज्ज्वल साँवल वपु सोभित अंग फिरत फरि ।। द्वारे पैठत कुंजर मारयो डु- काय धरनी डारयो । मुष्टिक चाणूर शिल्पसौ शील संहारयो । जिहिं ज्यों जीय रूप विचायो | तेसोई रूप धान्यो । देवकी वसुदेव जीयको संताप निवान्यो ॥ मल्लसुभट परे भगार कृष्णको
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