दशमस्कन्ध-१० रुधिर धारा चली छीट छवि वसन पर भई भारी । केसरि चीर पर अबीर मानों परयो खेलते । फागु डारयो खिलारी ॥ मातुल तजि प्राणसो गयो निर्वाणको सिद्ध गंधर्व जैजै उचारें । देखि लीला ललित सूरके प्रभुकी नारि नर सकल तनपान वारे॥९३।नयानवल नदनंदन रंगभूमि आए। संग बलराम अभिराम शशि सूरज्यों निरखि अपन छवि सो सोहाए । द्वार गजराज देखि पीतपट | कटि कसत मंद मृदु हँसत अति लसत भारी ॥ कडुन कहि परति तब जयहि फिरि हरिके। छवीली पति आसवारी । गर्वको गिरि मनो चलत पाँइन तैसें कुवलया प्रवल रिस सहित धायो॥ बालक सूस ज्यों पूंछ धरि खेलिए तैसे हरि हाथ हाथी गिरायो । गहि पटकि पुहुमि पर नैक नहीं मटकटियो दंत मनु मृणालसे ऐंचि लीन्हें ॥ कंधधरि चले दोऊ वीर नीके बने निरखि पुरजन धन प्राण वारि दीन्हें । शैलसे मल्ल वैधाइ आए शरन कोऊ भूले लागे तब गोड पर थरथराने ॥ कंसके प्राण भयभीत पिंजरा जैसे नव विहंगम तैसे मरत फरफराने । मधुपुरीकी युवति सब कहति अतिरति भरी देखौरी देखौ अंग अंगकी लोनाई ॥ सुनत श्रवणन रही देखोरी तेई सही मधुर मूरति सुरतिपति न पाई । धन्यराधा केलि वृंदावन कुंज हैं सभागी॥ सबै देखी हैली धौं माई हम अभागी॥ धन्य ब्रजबाल नंदलाल गिरिधरनको नित्य निरखात रहति प्रेम पागी । अवलसों अपल भए सरलसों सबल भए ललितसों ललित तनु प्रकाशी ॥ सूर प्रभु ज्ञान करि ध्यान कर जिन जैसी लई मानि मात पितु दुख दूरि डारे विनाशी॥९४ ॥ बिलावल ॥ देखोरी आवत वै दोऊ । मणि कंचनकी राशि ललित अति यह उपमा नहिं कोऊ॥ किधौं प्रात मानसरवर तेहि उडि आए दोउ हंसाइनको कपट करै मथुरापति तो है निवैस।जिनके सुने करत पुरुपारथ तेई हैं की और। सूर निरखि यह रूपमाधुरी नारि करत मनडौर।।९६॥कान्हरोसजनी येई हैं गोपालगोसाईनंदमहरके ढोटा जिनकी सुनियत बहुत बडाईनिनन रूप निरखि देखौ वडभाग परमसुख निधि पाई।चंद्र चकोर मेघ चातकलौं अवलोको मनलाईसुंदरश्याम सुदेश पीतपट भुज चंदन चरचित कीन्हें । नटवर भेप धरे मनमोहन गज युग दशन कंध धरि लीन्हें।।नूपुर चारु चरण कटि किंकिाण वनमाला उर पर सोहै । कर कंकण मणि कंठ मनोहर सोको युवति जौन मनमोहै।। परमरुचिर मणि कंठ किरन गनि कुंडल मुकुट प्रभा न्यारी । विधुमुख मृदु मुसकानि अमृत सम सकल लोक लोचन प्यारी॥ सत्य शील संपन्न सुमूरति सुर नर मुनि भक्तन भाए । सूरदास प्रभु दुष्पविनाशन गोकुलते मथुरा आए॥९॥विलापला एई सुत नंद अहीरकोमारयो रजक वसन सब लूटे संग सखा बलवीर के ॥ कांधे धरि दोऊ जन आए दंत कुबलिया धीरके । पशुपति मंडल मध्य मनो मणि क्षीरधि नीरधि नीरके ॥ उडि आए तजि हंस मात मनो मानसरोवर तीरके । सूरदास प्रभु ताप निवा- रण हरन संत दुख पीरके ॥९७॥ फल्याण ॥ हँसत हँसत श्याम प्रबल कुवलया मारयो। तुरत दांत लिए उपार कंधनपर चले धारि निरखति नर नारि मुदित चकृत गज संहारयो।अतिही कोमल अजान सुनत नृपति जिय सकान तनु विनु जनु भयो प्राण मल्लनिपै आए। देखतही सांक गए कालगुण विहाल भए कंस डरन घेरि लिए दोउ मन मुसुकाए ॥ असुर वरी चहूँ पास जिनके वस भुव अकास मल्लनपै आए न करि गांस नास ब्रह्मको विचारै । सबै कहत भिरहु श्याम सुनत रहत सदा नाम हारि जाति घरहीकी कौन. काहि मारै ॥ हँसि बोले श्याम राम कहा सुनत रहे नाम खेलनको हमाह काम वालक सँग डोलै । सूर नंदके कुमार यहहै राजस विचार कहा कहत चार वार प्रम ऐसे बोले ॥९८॥ रंगभूमि आए अति नंदसुवन वारे । निरखति ब्रजनारि नेह उरते
पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५६०
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।