. सूरसागर। ... LAM (४६६) बात सुनत रिस भरयो महावत तुमहि कहा इतनो रेगारो। वादत बड़े शूरकी नाँई अवहिं लेतहाँ प्राणतुम्हारोवारनहीं करौं वारन सहित फटकिहाँ वावरेखात काहे मुख सँभारोवादि मरिजाइगोवारन हिं छोडि दे वदत बलराम तोहिं वारवारौ।वात मेरी मान गर्व बोलै कहा काल किनि देखि इतरात. कारोवाम कर गहि शुडि डारिहौं अमरपुर हांकदै तुरत गजको हँकारे ॥ वाजसों टूटि गजराज हां कत परयो मनो गिरि चरण धरि लपकि लीन्हें।वारि बांधे वीर चहुँधा देखतही वज्र सम थाप वल कुंभ दीन्हो।कूक पारयो लपकि घींच मज डरयो मनु गंडमधिरंभ झरखो सुखानोक्रोध गजपालके ठटाकि हाथी रह्यो देत अंकुश मसकि कहा सकानो।वहुरि तातो कियोडारि तिनपरदियो आय लपटे सुतहु नंद केरे।सूरप्रभु श्याम बलराम दोउ इतै उत वाचकरि नाग इत उतहि टेरे ८९॥ गुंडमलार।। क्रोध गजराज गजपाल कीन्हो । गरजि घुमरात मद मार गंडनि श्रवत पवन ते वेग तेहि समै ची न्हो ॥ चक्र सों भ्रमत चकृत भए देखि सब चहुंधा देखिए नंद ढोटा । चमकि गए वीर सब चका चौंधी लगी चितै डरपे असुर घटा घोटा। नील अंबर धौल वरन बलराम वनि पीत अंबर श्याम अंग सोभासूर प्रभु चरित पुर नारि देखति खड़े महल पर आशिपा देत लोभा९०कहत हलधर कह्यो मानि मेरो।अखिल ब्रह्मण्ड के नाथ हैं ह्याँ खरे गज मारि जीव अब लेहुँ तेरो।यह सुनत रिस भरयो दौरिवेको परयो डि झटकत पटकि कूक पारचो। घात मन करत लै डारि हौं दुहुँनि पर दियो गज पेलि आपुन हँकारयो । लपकि लीन्हो धाइ दवकि उर रहे दोउ भ्रम भयो गजहि कहाँ गए वैधौ।अरयो दे दशन धरनी कढे वीर दोउ कहत अबही याहि मारै कैध खेलि हैं संग दै हाँक ठपढे भए श्याम पाछे राम भये आगे।उतहि वै पूंछ गहि जात ए शूडिव फिरत गज पास चहुँ हँसन लागोनारि महलन खरी सबै अतिही डरी नंदके नंद गज दोउ खिलासूर प्रभु श्याम बलराम देखति तृषित बचें इक वेर विधि सों मनावै९१खेलत गज सँग कुँवर श्यामबलराम दोजाक्रोध द्विरद व्याकुल अति इनको रिस नैक नहीं चकृत भए योधा तहँ देखत सब कोऊ ॥ श्याम झटाक पूछ लेत हलधर कर शुडिदेत महल महल नारि चरित देखति यह भारी। ऐसे आतुर गोपाल चपल ने न मुखरसाल लिए करन लकुट लाल मनो नृत्यकारी।।सुरंगण व्याकुल विमान मन मन यह करत ज्ञान बोलत यह वचन अजहुँ मारयो नहिं हाथी । सूरज प्रभु श्याम राम अखिल लोकके विश्राम सुर पूरन काम करन नाम लेत साथी ॥ ९२ ॥ सोरठ ॥ तब रिस कियो महावत भारी । जो नहिं आजु मारिहौं इनको कंस डारिहै मारी ॥ अंकुश सखि कुंभ पर करण्यो हलधर उठे हँकारी। धायो पवनइते अति आतुर धरणी दंत सभारी।तब हरि पूंछ गह्यो दक्षिण कर कबुक ओर शिरवारी पटक्यो भूमि फेरि नहि मटक्यो लीन्हें दंत उपारी।दुहुँ कर द्विरद दशन इक इक छविसों निरखति पुर नरनारी।सूरदास प्रभु सुर सुखदायक मारयो नाग पछारी९३॥दूसरी लीला हस्तविधवारांगमारूपानवल नँदनंदन रंगद्वार आए । तडितसे पीतपट काछनी कसे कटि खौर चंदन किये मुख सुहाएं। निरख्यो रूप जिन भयो सोइ सोइ मगन मातु पितको पुत्र भाव आयो । ब्रह्मपूरण सुनिन परम सुंदर चियन कालके रूप सुभटन जनायो। मातुलको देखि हरि कह्यो यो विहसि करिपंथते टारि गजको महावत । दियो फटकार उन धारि अभिमान मन शुंडते दौरि गयो ताहि आवत ॥ दंत युग विवि युगचर भीतर निकसि युग करन पूँछको गयौ जाई । महाकरि सिंह भेटत महाउरगको महाबल गरुड़ ज्यौं गहत धाई ॥ कबहुँ लैजात उत इतै ल्यावत कबहुँ भ्रमत व्याकुल भयो मतुल | भारी । गयंद ज्यों गेंदको पटकि हरि भूमिसों दंत दोउ लये निजकर उपारी ॥ भभकिकै दंतते
पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५५९
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।