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सूरसागर।


हि श्याम। तरनि किरनि महलनि पर झाई इहै मधुपुरी नाम॥ श्रवणन सुनत रहत जाको नित सो दरशन भए नैन। कंचनकोट कंगूरनकी छबि मानहु बैठे मैन॥ उपवन बन्यो चहूंघा पुरके अतिही मोको भावत। सूरश्याम बलरामहि पुनि पुनि करपल्लवनि देखावत॥५८॥ श्रीकृष्णवचन अक्रूर प्रति ॥ कल्याण ॥ बार बार बलरामको मधुपुरी बतावत॥ छज्जे महलन देखिके मन हरष बढावत॥ जन्मथान जिय जानिकै ताते सुख पावत। वन उपवन छाये सघन रथ चढे जनावत॥ नगर सोर अकनत सुनत अतिरुचि उपजावत। सुनत शब्द घरियारके नृप द्वारबजावत॥ वरन वरन मंदिर बने लोचन ठहरावत। सूरज प्रभु अक्रूरसों कहि देखि सुनावत॥५९॥ अक्रूरवचन श्रीकृष्णमति॥कल्याण ॥ श्रीमथुरा ऐसीआजुबनी। देखहु हरि जैसे पति आगम सजति श्रृंगारधनी॥ मानहुँ कोटि कसी कटिकिंकिणि उपवन वसन सुरंग। भूषण भवन विचित्र देखियत सोभित सुंदर अंग॥ सुनत श्रवण घरिआर घोर ध्वनि वायन नूपुर बाजत। अति संभ्रम अंचल चंचलगति धामन ध्वजा विराजत॥ ऊंच अटनपर छत्रन की छबि शीशन मानो फूली। कनक कलस कुच प्रगट देखिअत आनँद कंचुकि भूली॥ विद्रुम फटिक पची परदा छबि लालरंध्रकी रेख। मनहुँ तुम्हारे दरशन कारण भूले नैन निमेष॥ चितदै अब लोकहु नँदनंदन पुरी परम रुचिरूप। सूरदास प्रभु कंस मारिकै होहु यहांके भूप॥६०॥ मथुरा हरषित आजु भई। ज्यों युवतीपति आवत सुनिकै पुलकित अंग मई॥ नवसत साजि श्रृंगारबनी सुंदर आतुरपंथ निहारति। उड़त ध्वजा तनु सुरति विसारे अंचल नहीं सँभारति॥ उरल प्रगट महलनपर कलसा लखति पास बनसारी। ऊंचे अटनि छाजेकी सोभा शीश उचाइ निहारी॥ जालरंध्र इकटक मग जोवति किंकिणि कंचनदुर्ग। वेनी लसति कहौ छबि ऐसी महलन चित्रे उर्ग। बाजत नगर बाजने जहँ तहँ और बजत परिआर। सूरश्याम वनिता ज्यों चंचल पगनूपुर झनकार॥६१॥ गुंडमलार ॥ नगरके पास जब श्याम आए। देखि रथ चढे बलराम अरु श्यामको गए अक्रूर तिन लए आए॥ कंसके दूत जहां तहांते देखिकै गए नृप पास आतुर सुनाए। उठ्यो झिझकारि कर ढाल खड्गहि लिए रंग रण भूमिके महल बैठ्यो॥ कुवलियामल्ल मुष्टिक चाणूरसो होहु तुम सजग कहि सबन ऐठ्यो। एक पठवत एक कहत है आइकै एक सों कहत धौं कहां आए। सूर प्रभु शहर पैठार पहुँचे आइ धनुषके पास जोधा रखाए॥३२॥ पुरनारि श्रीकृष्ण सोभापरस्पर वदति॥ धनाश्री ॥ मथुरा पुरमें सोर परयो। गर्जत कंस वंश सब साजे मुखको नीर हरयो॥ पीरो भयो फेफरी अधरन हृदय अतिहि डरयो। नंदमहरके सुत दोउ सुनिकै नारिन हर्ष भरयो॥ इंदु वदन नव जलद सुभग तनु दोउ खग नैन कह्यो। सूरश्याम देखत पुर नारी उर उर प्रेम भरयो॥६३॥ रामकली ॥ रथपर देखि हरि बलराम। निरखि कोमल चारु मूरति हृदय मुकुता दाम॥ मुकुट कुंडल पीतपट छबि अनुज भ्राता श्याम। रोहिणी सुत एक कुंडल गौरतनु सुखधाम॥ जननिकैसे धरयो धीरज कहति सब पुरवाम। बोलि पठये कंस इनको करै धौं कहा काम॥ जोरि कर विधि सों मनावति अशीशैदे नाम। न्हात बार न खसै इनको कुशल पहुंचैं धाम॥ कंसको निर्वश ह्वै है करत इन पर ताम। सूर प्रभु नंद सुवन दोऊ हंस बाल उपाम॥६४॥ कल्याण ॥ देखरी आजु नैन भरि हरिजूके रथकी सोभा। योग यज्ञ जप तप तीरथव्रत कीजतहै जेहि लोभा॥ चारु चक्र मणि खचित मनोहर चंचल चमर पताका॥ श्वेत छत्र मनो शशि प्राची दिशि उदय कियो निशि राका॥ धन तन श्याम सुदेश पीत पट शीश मुकुट उर माला। जनु दामिनि घन रवि तारागण प्रगट एकही काला॥ उपजत छबि कर अधर शंख मिलि सुनियत शब्द प्रशंसा। मानहु अरुण कमल मंडल में कूजत हैं