सूर हृदय धीरज अवधारौ काहेको बिलखात॥१६॥ सोरठ ॥ यह सुनि गिरी धरणि झुकि माता। कहा अकर ठगोरी लाई लिए जात दोउ ताता॥ विरध समय की हरत लकुटिया पाप पुण्य डर नाहीं।
कछू नफा तुमको है यामें सोसो धोमन माहीं॥ नाम सुनत अक्रूर तुम्हारो क्रूर भए हौ आइ॥ सूर नंद घरनी अति व्याकुल ऐसीह रैनि बिहाइ॥१७॥ गौपिकावचन परस्पर ॥ रामकली ॥ सुनेहैं श्याम मधु
पुरी जात। सकुचनि कहि न सकति काहू सो गुप्त हृदयकी बात॥ संकित वचन
अनागत कोऊ कहि जु गई अधरात। नींद न परै घटै नहिं रजनी कब उठि देखौं प्रात॥ नँदनंदन तो ऐसे लागे ज्यों जल पुरइन पात। सुरश्याम सँगते बिछुरत हैं कब ऐ हैं कुशलात॥१८॥ सारंग ॥ सुने नंदलाल मधुपुरी जात। सकुचति कहि न सकति काहू सों गुप्त हृदय की बात॥ सकृत वचन अनागत सखीरी कोऊ कहि जु गयो अधरात। रजनी घटे न सूर
प्रकाशे कब उठि देखौं प्रात॥ उर धकधकी तबहितें लागी अगम जनायो सीरे गात। सूरदास स्वामी के चलिवे ज्यों यंत्री बिनु यंत्र सकात॥१९॥ प्रभात कथा वदत ॥ सखा वचन ॥ राग भैरव ॥ भोर भयो ब्रजलोगनको। ग्वाल सखा सखि व्याकुल मुनिकै श्याम चलतहैं मधुवनको॥सुफलकसुत स्यंदन पलनावत देखैं तहां बलमोहनको। यह सुनि घर घरते उठि धाई नंदसुवन मुख जोवनको॥ रोरि परी गोकुलमें जहँ तहँ गाइ फिरत पय दोहनको। सूर वरवस कर भार सजावत महरचलत हरि गोहनको॥२०॥ रामकली ॥ चलनको कहियतहैरी आजु। अबहीं गई श्रवण सुनि आई करत गमनको साजु॥ कोउ एक कंस कपट कर पठयो कछु सँदेश दै हाथ। सोलै चल्यो हमारी जीवननिधिको अपने साथ॥ अब यह शूल न जाति समुझि सहि रही हिए कार लाज। धीरज अवधि आशदै जननिहि जात चले ब्रजराज॥ करिये विनती कमल नयन सों सूर समो पहिचान। कौने कर्म भयो दुखदारुण रहत न मेरो कान॥२१॥ चलत हरि धृगजु रहत ए प्रान। कहां वह सुख अबसहौं दुसह दुख उर करि कुलिश समान॥ कहां वह कंठ श्याम सुंदर भुज करति अधर रस पान। अचवत नमन चकोर सुधा विधु देखहु मुख छबि आन॥ जाको जग उपहास कियो तब छाँड्यो सब अभिमान। सूर सुनिधि हम तेहैं बिछुरत कठिनहै करमनिदान॥२२॥ कल्याण ॥ हौं सावँरे के संग जैहौं। होनी होइ सुहोइ उभै लै हठ यश अपयश कहूं नडरैहौं॥ कहा रिसाइ करैगो कोऊ जो रोकि है प्राण ताहि दैहों। देहाँ छांडि राखिहौं यह ब्रत हरि हितु वीजु बहारको वैहौं॥ करिहौं सूर अजर अवनी तन मिलि अकास पिय भौन समैहौं। बायवीज वापी जलक्रीडा तेज मुकुर मुख लेहौं॥२३॥ यहि अंतर एक सखी आइ हरिके गवनको संदेश वंदति ॥ राग कल्याण ॥ श्याम चलन चहत कह्यो सखी एक आई। बलमोहन रथ बैठे सुफलकसुत चढन चहत यह सुनि चकित भई विरहदौं लगाई। धुकि धुकि सब धरणि परीं ज्वाला झरलतागिरीं मनो तुरत जलद बरषि सुरति नीर परसी। धाई सब नंद द्वार बैठे रथ दोउ कुमार यशुमति लोटति भुवपर निठुर रूप दरसी॥ कौन पिता कौन माता आपु ब्रह्म जगधाता राख्यो नहीं कछू नाता नैक नेह माहीं। आतुर अक्रूर चढे रसना हरि नाम रटे सूरज प्रभु कोमल तनु देखि चैन नाहीं॥२४॥ गोपीवचन मोहन प्रति राग ॥ सारंग ॥ बिनती एक सुनौ श्रीश्याम। चलन नदेत चलो चाहत मन चलन कहौ सो सुनिए श्याम। तुम सर्वज्ञ सकल घट व्यापक जीवन पद सबके विश्राम। संतत रहत कहत ढीठोदै करते सब सोवत सुखधाम॥ बाहर सरल प्रीति गोपिनको लिए रहत लैलै गुणग्राम। सूरदास प्रभु सकल सुखदाता तिनते न्यारेन ग्राम॥२५॥ सारंग ॥ बिनु परवहि उपराग आजु हरि तुमहै चलन कह्यो। को जानै उहि राहु रमापति कतह्वै शोधलह्यो॥ वैतकिचुनित नीच नैनन मिलि अंजन रूप रह्यो। विरह संधि बलपाइ
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सूरसागर।