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दशमस्कन्ध-१०


कल्याण ॥ सुफलक सुत हरि दरशन पायो। रहि न सक्यो स्थपर सुख व्याकुल भयो उहै मन भायो॥ भूपर दौरि निकट हरि आयो चरणन चित्त लगायो। पुलक अंग लोचन जलधारा श्रीगृह शिर परसायो। कृपासिंधु करि कृपा मिले हँसि लियो भक्त उर लाइ। सूरदास यह सुखसो जानै कहौं कहा मैं गाइ॥८९॥गुंडमलार ॥ हरषि अक्रूर हरि हृदय लायो। मिले तेहि भाव जो भाव चितवनि चित्त भक्त वत्सल नाम तो कहायो॥ कुशल बूझत प्रसन्न वचन अमृत रस श्रवण सुनि पुलक अंग भंग कीन्हों। चितै आनन चारु बुद्धि उर विस्तार दनुज अब दलौं यह ज्वाब दीनों भेदही भेद सब दई वाणी कही तुरत बोले हेतु इहै वाके। सूर संग श्याम बलराम अक्रूर सहनिपट अति प्रेमके पंथ थाके॥९०॥ बिलावल ॥ श्याम इहै काहिकै उठे नृप हमैं बोलाये। अतिहि कृपा हमपर करी जो कालि मँगाए॥ संग सखा यह सुनतही चकृत मनकीन्हो। कहा कहत हरि सुनतहौं लोचन भरि लीन्हो॥ श्याम सखन मुख हेरिकै तब करी सयानी। कालि चलौ नृप देखिए संका जिय आनी॥ हर्ष भए हरि यह कहे मन मन दुखभारी। सूर संग अक्रूरके हरि ब्रज पग धारी॥९१॥ रामकली ॥ अति कोमल बलराम कन्हाई॥ दुहुँनि गोद अक्रूर लिए हँसि सुमनहुते हरुवाई॥ ग्वाल संग रथ लीन्हें आए पहुँचे ब्रथ की खोरी। देखत गोकुल लोग जहांतहँ नंद उठे सुनि सोरी॥ निशि सपनेको तृपित भए अति सुन्यो कंसको दूत। सूर नारि नर देखनधाए घर घर सोर अकूत॥९२॥ गुंडमलार ॥ कंस नृप अक्रूर ब्रज पठाए। गए आगे लेन नंद उपनंद मिलि श्याम बलराम उन हृदय लाए॥ उतरि संदन मिल्यो देखि हरष्यो हियो सोच मन यह भयो कहाँ आयो। राजके काजको नाम अक्रूर यह किधौं कर लेनकौ नृप पठायो। कुशल तोह बूझि लै गए ब्रज निजधाम श्याम बलराम मिलि गए वाको॥ चरण पखराइकै सुभग आसन दियो विविध भोजन तुरत दियो ताको॥ कियो अक्रूर भोजन दुहुँन संग लै नर नारि ब्रज लोग सबै देषै। मनो आए संग देखि ऐसे रंग मनहि मन परस्पर करत मेषै॥ सारि जेबनार अचवनकै भए शुद्ध दियो तंमोर नँद हर्ष आगे। सेज बैठारि अक्रूरसों जोरिकर कृपा करी तब कहन लागे॥ श्याम बलरामको कंस बोले हेतसों नंदलै सुतन हम पास आवैं। सूर प्रभु दरशकी साध अतिही करत आजुही कह्यो जिनि गहरु लावैं॥९३॥ कान्हरो ॥ सुन्यो ब्रज लोग कहत यह बात। चकृत भए नारि नर ठाढे पांच न आवै सात॥ चकित नंद यशुमति भई चकृत मनही मन अकुलात। दैदै सैन श्याम बलरामहि सबै बुलावत जात॥ पारब्रह्म अविगति अविनाशी माया रहित अतीत। मनों नहीं पहिचानि कहूंकी करत सबै मनभीत। बोलत नहीं नेक चितवत नहिं सुफलकसुतसों पागे। सूर हमाहि नृपहित करि बोले इहै कहत ताआगे॥९४॥ विहागरो ॥ व्याकुलभए ब्रजके लोग। श्याम मन नहिं नेक आनत ब्रह्म पूरण योग॥ कौन माता पिता कोहै कौन पति कोनारि। हँसत दोउ अक्रूरके सँग नवल नेह विसारि॥ कोउ कहति यह कहां आयोक्रछर याको नाम। सूर प्रभु लै प्रात जैहै और सँग बलराम॥९५॥ गोपिकाविरहअवस्थावर्णन ॥ चलन चलन श्याम कहत कोउ लेन आयो नंद भवन भनक सुनी कंस कहि पठायो॥ ब्रजकी नारि गृहविसारि व्याकुल उठिधाई। समाचार बूझनको आतुरह्वै आई॥ प्रीति जानि हेतु मानि बिलखि बदन ढाढी। मानहु वै अति विचित्र चित्र लिखित काढी॥ ऐसी गति ठौर ठौर कहत न बनि आवै। सूरश्याम बिछुरे दुख विरह काहि भावै॥१६॥ कान्हरो ॥चलत जानि चितवत बज युवती मानहु लिखी चितेरे। जहां सु तहां यंकटक मग जोवत फिरत न लोचन कोरे॥ विसरि गई गति भांति देहकी सुनत नश्रवणन टेरे।