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सूरसागर।


मन मन अति गाढो॥ मंत्रकियो निशि मेरे साथ। मोहिं लेन पठयो ब्रजनाथ॥ गज मुष्टिक चाणूर निहारयो। व्याकुल नयन नीर दोउ ढारयो॥ अति बालक बलराम कन्हाई। कहा करों नहिं कछू बसाई। कैसे आनि देउँमैं जाई। मो देखत मारै दोउभाई॥ मारै मोहिं वंदि लै बोलै। आगेको रथ नैक नठेलै। सूरदास प्रभु अंतर्यामी। सुफलकसुत मन पूरणकामी॥८०॥ कल्याण ॥ सुफलकसुत हृदय ध्यान कीन्हो अविनाशी। हरन करन समरथ वै सब घटके वासी॥ धन्य धन्य कंसहि कहि मोहिं जिनि पठायो। मेरो करि काज मीच आपुको बोलायो॥ यह गुणि रथ हांकि दियो नगर परयो पाछे। कछु सकुचत कछु हरषत चल्यो स्वांग काछे॥ बहुरि सोच परयो दरश दक्षिण मृगमाला। हरष्यो अक्रूरसर मिलिहो गोपाला॥८१॥ अक्रूर शकुन परीक्षा ॥ टोडी ॥ दक्षिण दरश देखि मृगमाला। अति आनंद भयो तेहि काला॥ बहु दिनके मेटो जंजाला। यहि वन मिलिहौ मोहिं गोपाला॥ श्याम जलद तनु अंग रसाला। ता दरशनते होउँ निहाला। बहुदिनके मेटो जंजाला। मुखं शशि नैन चकोर विहाला। तनु त्रिभंग सुंदर नंदलाला। विविध सुमन हृदय शुभमाला। सारसहूते नैन विशाला। निहचै भयो कंसको काला॥ सूरज प्रभु त्रिभुवन प्रतिपाला॥८२॥ आसावरी ॥ दाहिने देख मृगन की मालहि। मनो इन शकुन अबहीं यहि बन इन भुजभरि मेंटो गों गोपालहि॥ निरखि तनु त्रिभंग पुलक सकल अंग अंकुर धरनि जिमि पाँय पावस कालहि। परिहों पाँयन जाय भेंटिहैं अंक मलाइ मूलते जमी ज्यों बेली चढति तमालहि॥ परस्परमानंद सींचिकै कामना कंद करिहैं प्रगटा प्रीति प्रेम प्रवालहि॥ वचन रचन हास सुमन सुख निवास करहि फलीहै फल अमोघ रसालहि। स्फुरित शुभ सुवाहु लोचन मन उछाहु फूलिकै सुकृत फल फली तेहि कालहि॥ निगम कहत नेति शिव न सकत चेति सूर सुहृदय लगाइ लैहों ता दयालहि॥८३॥ कान्हरो ॥ आजु वै चरण देखिहौं जाय। जे पद कमल प्रिया श्रीउरसे नेक न सके भुलाइ॥ जे पद कमल सकल मुनि दुर्लभ मैं देखों सतिभाव। जे पद कमल पितामह ध्यावत गावत नारद जाव॥ जे पद कमल सुरसरी परसे तिहूं भुवन यश छाव। सूरश्याम पद कमल परसिहौं मन अति बढ्यो उराव॥८४॥ आजु जाइ देखिहौं वै चरण। शीतल सुभग सकल सुखदाता दुखह दवन दुखहरण॥ अंकुश कुलिश कमल ध्वज चिह्नत अरुण कंजके रंग। गउ चारत बनजाइ पाइहौ गोप सखनके संग॥ जाको ध्यान धरत मुनि नारद शिव विरंचि अरु ईश। तेई चरण प्रगट करि परसों इन कर अपने शीश॥ देखि स्वरूप रहि न सकिहौं स्थते धैहौं धरधाइ। सूरदास प्रभु उभय भुजा धरि हँसि भेटिहैं उठाइ॥८५॥ नट ॥ जब शिर चरण धरिहौं जाइ। कृपा करि मोहिं टेकि लेहैं करन हृदय लगाइ॥ कुशल अंग पुलकित वचन गदगद मनहि मन सुखपाइ। प्रेम घट उच्छलित ह्वैहैं नैन अंश बहाइ॥ कुशल बूझत कहि न सकिहौं बार बार सुनाइ। सूर प्रभु गुण ध्यान अटक्यो गयो पंथ भुलाइ॥८६॥ बिलावल ॥ मथुराते गोकुल नहिं पहुँचे सुफलकसुत को सांझ भई। हरि अनुराग देह सुधि विसरी रथं वाहनकी सुरति गई॥ कहां जात किन मोहिं पठायो कोहों मैं यहि सोच परयो। दशंहू दिशा श्याम परि पूरण हृदय हरष आनंद भरयो॥ हरि अंतर्यामी यह जानी भक्तवछल वानो जिनको। सूर मिले जो भाव भक्तके गहर नहीं कीन्हों तिनको॥८७॥ कल्याण ॥ वृंदावन ग्वालन सँग गैयन हरि चारै। अपने जनहेत काज ब्रजको पग धारै॥ यमुनाकरि पार गाय श्याम देत हेरी। हलधर सँग सखा लए सुरभी गण घेरी॥ धेनु दुहुन संखन कह्यो आए दुहन लागे। वृंदावन गोकुल बिच यमुनाके आगे॥ भक्त हेतु श्रीगोपाल यह सुख उपजायो। सूरज प्रभु को दरशन सुफलक सुत पायो॥८८॥