हार जगायो। सूरत्रास बल श्यामके नहिं पलक लगायो॥७१॥ नंदस्वप्न भ्रमः ॥ बिलावल ॥ उत नंदहि स्वप्नो भयो हरि कहूं हिराने। बल मोहन कोउ लै गयो सुनिकै बिलखाने॥ ग्वाल बाल रोवत कहैंक हरितौ कहुँ नाहीं। संगहि सँग खेलत रहे यह कहि पछिताहीं॥ दूत एक सँग लै गयो बल राम कन्हाई। कहा ठगौरीसी करी मोहनी लगाई॥ वाहीके दोउ ह्वै गए हम देखत ठाढे। सूरज प्रभु वै निठुरह्वै अतिही गए गाढे॥७२॥ सोरठ ॥ व्याकुल नंद सुनतहैं बानी। धरणीमुरछिपरे अति व्याकुल विवसयशोदारानी॥ व्याकुल गोप ग्वाल सब व्याकुल व्याकुल ब्रजकी नारी। व्याकुल सखा श्याम बलके जे व्याकुल अति जियभारी॥ धरणी परत उठत पुनि धावत इहि अंतर नंदजागे। धकधकात उर नैन श्रवत जल सुत अँग परसन लागे॥ सुसुकत सुनि यशुमति अतुराई कहा महर भ्रम पायो। सूर नंदघरनीके आगे यह भ्रम नहीं सुनायो॥७३॥ कंसकयावदत ॥ कल्याण ॥ एकयाम नृपको निशि युगवत भई भारी। आपुनहूं जायो संग जागीं सब नारी॥ कबहुँ उठत बैठत पुनि कबहूं सेज सोवै। कबहुँ अजिर ठाढेह्वै ऐसे निशि खोवै॥ बारबार जोतिकसों घरी बूझि आवै। एक जाइ पहुँचै नहीं और एक पठावै॥ जोतिक जिय त्रास परयो कहा प्रात करिहै। सूर क्रोध भज्यो
नृपति काके शिरपरिहै॥७४॥ व्याकुल टेरे निकटि बूझै घरी बाकी। एक एक छिन याम याम ऐसी गति ताकी॥ को जैहै ब्रजको मन करै केहि पठाऊ। जासों कहि नंदसुवन आजुही मगाऊ॥ अब नहिं राखौं उठाइ बैरी नहिं नान्हो। मारौं गजपै रुँदाइ मनहि यह अनुमान्हो॥ पठऊं तौ अक्रूरहिको ऐसो नहिं कोऊ। सूर जाइ गोकुलते ल्यावै ढिग दोऊ॥७५॥ बिलावल ॥ अरुणोदय उठि प्रातही अक्रूर बोलाए। आपु कह्यो प्रतिहारसों इक सुनि शतधाये॥ सोअत जाइ जगायकै चलिए नृप पासा। उहै मंत्र मन जानिकै उठि चले उदासा॥ नृपति द्वारही पै खरो देखत शिरनायो। कहि खवासको सैनदै शिरपाव मँगायो॥ अपने कर करिकै दियो सुफलकसुत लीन्हों। लैं आवहु सुत नंदके यह आयसु दीन्हों॥ मुख अक्रूर हर्षित भयो हृदय बिलखानो। असुरत्रास
अति जिय पज्यो कह कहै सयानो॥ तुरतहि रथ पलनाइकै अक्रूरहि दीन्हों। आयसु शिरपर मानिकै आतुरह्वै लीन्हों॥ विलम करौ जिनि नेकहूं अबहीं ब्रजजाहू। सूर काजकरि आवहू जिनि रोनि बसाहू॥७६॥ बिलावल ॥ कंस नृपति अक्रूर बोलायो। बैठि एकांत मंत्र दृढ कीनों राम कृष्ण दोउ बंधु मँगायो॥ कहूँ मल्ल कहुँ गजदै राखे कहूं धनुष कहुँ वीर। नंदमहरको बालक मेरे कर्षत रहत शरीर॥ उनहि बुलाइ बीचही मारौं नगर न आवन पावैं। सूर सुनत अक्रूर कहत नृप मन मन मौज बढावें॥७७॥ कल्याण ॥ तुम बिन मेरे हितू नकोऊ। सुन अक्रूर पुरत नृप भाषित नंदमहर सुत ल्यावहुँ दोऊ॥ सुनि रुचि वचन रोम हरषित गात प्रेमपुलकि मुख कछू नबोल्यो। यह आयसु पूरब सुकृत वश सो काहूषै जाहि नतौल्यो॥ मौन देखि परिहँसि नृप भीनो मनहुँ सिंहगो आय तुलानो। वहि क्रम बिनु द्वैसुत अहीर के रे कातर कत मन संकानो॥ आयसु पाइ सुष्ट रथ कर गहि अनुपम तुरंग साजि धृत जोह्यो। सूरश्यामकी मिलनि सुरति कार मनुनिधरन धन पाइ विमोह्यो॥७८॥ अक्रूर वचन कंससों ॥ बिलावल ॥ सुनहु देव इक बात जनाऊं। आयसु भयो तुरत लै आवहु ताते फिरिहि सुनाऊं॥ बल मोहन बनजात प्रातही जो उनको नहिं पाऊं। रैहौं आज नंद गृह वसिकै कालि प्रात ले आऊं॥ यह कहि चल्यो नृपतिहू मान्यो सुफलसुतक रथ हांक्यो। सूरदास प्रभु ध्यान हृदय धरि गोकुल तनको ताक्यो॥७९॥ अक्रूर गोकुल गमन ॥ टोडी ॥ सुफलक सुत मन परयो विचार। कंस निर्वश होइ हत्यार॥ डगर मांझ रथ कीन्हों ठाढो। सोच परयो
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दशमस्कन्ध-१०