प्रगट भयो वसुधा माहीं। कासों कहौं सूर अंतरकी सुफलकसुतको वचन चही॥६२॥ रागसोरठ ॥ महर ढोटौना शालिरहे। जन्महिते अपड़ाव करत हैं गुणिंं गुणि हृदय कहै॥ दनुजसुता पहिले संहारी पयपीवत दिन सात। गयो प्रतिज्ञा करि कागासुर आइ गिरयो मुख छात॥ तृणा शकट छिनमें संहारे केशी हतो प्रचारि। जे जे गए बहुरि नहिं देखे सबहिन डारे मरि॥ ज्यों त्यों करि इन दुहुँन संहारौं बात नहीं कछु और। सूर नृपति अति सोच परो जिय यहै करत मनदौर॥६३॥॥ रामकली ॥ नंदसुत सहज बुलाइ पठाऊं। श्याम राम अति सुंदर कहियत देखन काज मँगाऊं॥
जैहै कौन प्रेमकरि ल्यावै भेद नजानै कोइ। महर महरि सों हितकार ल्यावै महाचतुर जो होइ॥ इहि अंतर अक्रूर बुलायो अति आतुर महाराज। सूरचलौ मनसोच बढ़ायो कौनहै ऐसो काज॥६४॥॥ धनाश्री ॥ अति आतुर नृप मोहिं बोलायो। कौन काज ऐसो अटक्यो है मन मन सोच बढायो॥ आतुर जाइ पँवरि भयो ठाढो कहो पँवरिआ जाइ। सुनत बुलाइ महलई लीनो सुफलकसुत गयो धाइ॥ कछु डर कछु जिय धीरज धारै गयो नृपतिके पास। सूर सोच मुख देखि डेरानो ऊरथ लेत उसास॥६५॥ मारू ॥ सोच मुख देखि अक्रूर भरमे। माथकरनाइ करजोरि दोऊ
रहे बोलि लीन्हो निकट वचन नरमे॥ आपुही कंस तहां दूसरो कोउ नहीं त्रास अक्रूर जिय कहा कैहै। नृपति जिय सोच जान्यो हृदय आपने कहत कछु नहीं धौं प्राणलैहै॥ निकट बैठारि सब बात तेई कही गए जे भाषि नारद सवारैं। सूर सुत नंदके हृदय शालत सदामंत्र यह उनहिं अब बनै मारैं॥६६॥ सुनो अक्रूर यह बात सांची करौ आजु मोहिं भोरते चेत नाहीं। श्याम बलराम यह नाम सुनि ताम मोहिं काहूं पठावहुगे जाइ तिनहि पाहीं॥ प्रीति करि नंदसों सहज बातैं कहै तुरत लै आइ दुहुँ नृपति बोले। देखिवेकी साध बहुत सुनि गुण विपुल अतिहि सुंदर सुने दोउ अमोले॥ कमल जबते उरग पीठि ल्याए सुने वैहैं बकशीश अब उतहि दैहैं। सूर प्रभु श्याम बलरामको डर नहीं वचन इनके सुनत हरषपैहैं॥६७॥ सोरठ ॥ यह वाणी कहि कंस सुनाइ। तब अक्रूर हिए भयो धीरज डरडारयो विसराइ॥ मन मन कहत कहा चित बैठी सुनि मुनि वैसी वानी। अपनो काल आपुही बोल्यो इनकी मीचु तुलानी॥ हरषि वचन अक्रूर कहे तब तुरत काज यह कीजै। सूर जाहि आयसु करि पाऊं भोर पठै तेहि दीजै॥६८॥ बिलावल ॥ तब अक्रूर कहत नृप आगे धन्य धन्य नारद मुनि ज्ञानी। बडे शत्रु ब्रजमें दोउ हमको सुनहु देव नीकी
चित आनी॥ महाराज तुम सरि को ऐसो जाते जगत यह चलत कहानी। अब नहिं बचै क्रोध नृप कीन्हो जैहै छनकि तवा ज्यों पानी॥ यह सुनि हर्ष भयो गर्वानो जबहि कही अक्रूर सयानी। कालि बुलाई सूर दोउमारौं बार बार यह भाषत बानी॥६९॥ इहै मंत्र अक्रूरसों नृप रैनि विचारी। प्रात नंदसुत मारिहौं यह कह्यो प्रचारी॥ करि विचार युग यामलौं मंदिरहि पधारे। कह्यो जादु अक्रूरसों भए आलस भारे॥ तुरत जाइ पलका परयो पलकनि झपकानो। श्याम राम स्वपने खडे तहां देखि डरानो॥ अति कठोर दोउ कालसे भरम्यो अति झझक्यो। जागि परयो तहँ कोउ नहीं जियही जिय सुसक्यो॥ चौंकि परयो सँग नारिके रानी सब जागीं। उठीं सबै अकुलाइकै तब बूझन लागीं॥ महाराज झझके कहा सपने कह संके। सूर अतिः व्याकुल भए घर घर उर दंके॥७०॥॥ कंस स्वप्न भ्रमः ॥ महाराज क्यों आजुही स्वप्ने झझकाने। पौढे जबहीं आनिकै देखे बिलखाने॥ कहा सोच ऐसो परयो ऐसे भूमीको। काकी सुधि मनमें रही कहिए अपजीको॥ रानी सब व्याकुल भई कछु भेद न पावैं। तब आपुन सहजहि कह्यो वह नहीं जनावैं॥ सावधान करि पौरिआ प्रति
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सूरसागर।