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दशमस्कन्ध-१० (४४६) जोरि ॥ धरत भरत भाजत राजत गेंदुक नवला सन मार । रसन वसन छूटत नसँभार टूटतहै उरहार ॥३॥ जब मोहन न्यारे करि पाए पकरे चहुँदिशरि । बोलहुजू अब आनि छुड़ावै बल | भैयाको टेरि ॥ आज हमारे वश परेहो जैहौ कहाँ छिड़ाइ । की बल छूटहु आपने की यशुमति माय बोलाइ॥४॥ एक गहे कर एक फेंट गहि पीतांबर लियो छिडाय । राधा हँसति दूरि भई ठाढी. सखियन देति सिखाय ॥ एक श्रवणमें कहि कछु भाजति एक भरति अँकवारि । एक निहारति रूप माधुरी एक अपुनपो वारि ॥५॥ एक चिबुक गहि वदन उठावात हमतन लाल निहारि। एक नैनकी सैन मिलावति एक उठति दे गारिआई झुमि सकल ब्रजवनिता हरि देखी चहुँ ओर । राधा दृष्टि परे विनु मोहन तलफत नैन चकोर ॥६॥ हरि तब अपने करवरसों बूंघट पट कीनो द्वरि । हँसत प्रकाश भयो चहुँ दिशते सुधा किरानि भरिपूरि ॥ आँखि दिखाव तही जु कहा तुम करिहौ कहा रिसाय । हम अपनो भायो करि लेहैं छुवहु कुँवरिके पाय ॥७॥ तब तुम अंबर हरे हमारे कीन्हे कौन उपाय। अवतौ दाउँ परयो धरि पाए छाँडहिं तुमहिं नगाय॥ मुखकी कहति सबै झूठी मनहीं मन बहुत सनेहु । कटि करेंगे बलभैया अब हमहि छांडि किनि देहु ॥८॥ तुम जो फगुवा हो कहा चलि बोलहु सांचे बोल । की हमसों हाहा करिए की देख श्रीदामा ओल ॥ हाँस हँसि कहत सहत सबहीकी आभूषण अब लेहु । नासाको मुक्ता अरु मुरली पीतांबर मेरो देहु ॥ ९॥ एक वनाइ देति वीरी कर वल्लभ छुवति कपोल । धन्य धन्य वडभाग सवहिके वश कीने विनुमोल ॥ उड़त गुलाल अवीर कुमकुमा छबिछाई जनु सांझ । नाही दृष्टि परत राधा मुख चंद्र नीलांवर मांझ ॥३०॥ खेलि फाग अनुराग बढ्यो घर मची अर गजा कीच । व्रजवनिता कुमुदिनी कुसुमगण हरि शशि राजत बीच ॥ अष्टसिद्धि नवनिधि वज वीथिनि डोलति घर घर द्वार। सदा वसंत वसत वृंदावन लता लटकि तुम डार॥११॥ देखि देखि सोभा सुख संपति यह जिय करति विचार । ब्रजवनिता हम किन न भई यों कहति सकल सुरनारि॥ फागु खेलि अनुराग वढायो सबके मन आनंद । चले यमुन स्नान करनको सखा सखी नंदनंद ॥१२॥ दुष्टन दुख संतन सुखकारन ब्रजलीला अवतार । जय जय ध्वनि सुमन न सुर वर्षत निरखत श्याम विहार॥ युगल किसोर चरण रज मांगौं गाऊं सरस धमार। श्री राधा गिरिवर धर ऊपर सूरदास बलिहार ॥१३॥४६॥ रागनटनारायण। खेलत फागु कहत हो होरी । उत नागरी समाज विराजति इत मोहन हलधरकी जोरी॥३॥वाजत ताल मृदंग झांझ डफ रुंज मुरुंज वांसुरी ध्वनि थोरी । श्रवण सुनाइ गारिदै गावति ऊंची तान लेति प्रियगोरी ॥ कोटि मदन दुरि गयो देखि छवि तेउ मोहे जिन्हहूं मति भोरी । मोहन नंदनंदन रस विथकित कोहू दृष्टि जात नहिं मोरी॥२॥ कुमकुम रंग भरी पिचकारी उत्तम छिरकति नवल किसोरी। यहि विधि उमॅगि चल्यो रँग जहँ तहँ मनु अनुराग सरोवर फोरी ॥ कबहुँक मिलि दश बीसक धावति लोत छिंडाइ मुरलि झकझोरी। जाइ श्रीदामा लै आवत तव दैमानिनि बहुभांति पटोरी॥३॥भमिकर आन अवी र उडावत गोविंद निकट जाय दुरि चोरी । मनहु प्रचंड पवन वश पंकज गगन धूरि सोभित चहुँ ओरी ॥ कनककलस कुमकुम भरि लीन्हो कस्तूरी मिलिकै पसिघोरी । खेल परस्पर कीच मची घर अधिक सुरंग भई बजखोरी॥४॥ ग्वाल वाल सब संग मुदित मन जाय यमुनजल न्हाइ हिलोरी। नए वसन आभूपण पहिरत औरन देत पीतांवर छोरी ॥ द्वीज समाज समेत करत. | द्विज तिलक दूव दधि रोचन रोरी । सूरश्याम विप्रन वंदीजन देत रतन कंचनकी वोरी॥६॥४७॥