आवैंगे हरि आज खेलन फागुरी। सगुन सँदेशोहो सुन्यो तेरे आँगन बोलै कागुरी॥ मदन मोहन तेरे वश माई सुनि राधे बडभागुरी। बाजत ताल मृदंग झांझ डफ का सोवै उठि जागुरी॥ चोवा चंदन और कुमकुमा केसरि लै पैया लागुरी। सूरदास प्रभु तुम्हरे दरशको श्रीराधा अचल सुहागुरी॥९४॥ हो आजु नंदलाल सों खेलोंगी सखी होरी। ललिता विशाखा अंगन लिपावो चौक पुरावो तुमरोरी॥ मलयज मृगमद केसरिलै मथि मथि भरो कमोरी। नवसत साजि श्रृंगार करौ सब
भरि भरि लेहु गुलालहि झोरी॥ ज्यों उडुगणमें इंदु विराजत सहेलन मध्य राधिका गोरी। इक गोरी इक साँवरी हो इक चंचल इक भोरी॥ वरजति सखी वरज्यो नहिं मान लै पिचकारी दौरी। उन रंगलै पिय ऊपर डारयो पियहो रंगमें बोरी॥ ब्रह्मा इंद्र देवगण गंधर्व बरषे बहुत वाटिका खोरी। सूरदास प्रभु तुम्हरे मिलनको चिरजीवो राधावर जोरी॥९५॥ रागमालकौशिक ॥ नागर रसिक अरु रसिक नागरी। बलि बलि जाउँ देखि अब दंपति प्रमुदित लीला प्रथम फागरी॥ राधा दधि मथन करति अपने गृह प्रबल धरि सुकर पागरी। तब हरि उठि आए औचानक॥ उससिशशी चसढरित गागरी। लै उसास अंजरि भरिलोनो विदुराते दधि जुअनूपम आगरी॥ अति उमगित श्याम घन छिरके मनु वग पांति विछुरि गई मागरी॥ मोहन मुसकि गही दौरत में छूटि तनी छंदरहित घाघरी। जनु दामिनि वादरते विमुख वषु तरपित तक्षण लई तलागरी॥ आनंदित परम दंपति ऐसे पटने परस परत दागरी। सूरदास प्रभु रसिक शिरोमणिका वरणौं ब्रज युवति भागरी॥९६॥ राज्ञी बंगाली ॥ श्रीमदनमोहन जू मति डारौ केसार पिचकारी। दधिही मथन
जाहुँ यमुनाजल हो मोहन तुम कुंज विहारी॥ मर्म न गुरुजन पुरजन जानैं नहिं या वृंदावनकी नारी। सासु रिसाय लरै मेरी ननदी देखैं रंग देहिं मोहिं गारी॥ मुरली माहिं बजावत गावत बंगाली अधर चुवत अमृत घनवारी। मुदित पियत संतन सुखकारी पूरव सचित तेहि गिरिधारी॥ मृदु मुसुकानि युवति मन मोहत हो हरि माखन चोर मुरारी। सूरदास प्रभु दोउ चिरजीवो श्रीब्रजनाथ वृषभानु दुलारी॥९७॥ धमारि ॥ ठाढी देखी नंद दुआरेहो सुंदरि एक दह्यो लिये। बाढीहो प्रीति ललना गिरिधरसों गुरुजन सबहिन विसरि दिये॥ नयनन कज्जल नासिका वेसरि मुखत मोर अति राज्य। ढार सुढार वन्यो जाको मोती रहत अधर मुख छाज्य॥ कटि लहँगा पहुँची बंध अँगिया फुँदना बहु विधि सोहै। तरन जराव जरी जाकी जेहार हंसचाल मृग मोहै॥ कंचन कलस भराय यसुनजल मोतियन चौक पुराये। मनहु कछौना हंसन कैसे चुगन सरोवर आए॥
तुमतौ कहावतहो नँदनंदन सारंग बुद्धि है थोरी। सूरदास प्रभु नंदके लालकी बनाहो छबीली जोरी॥९८॥ कान्हरो ॥ हरि सँग खेलत हैं सब फाग। यहि मिस करत प्रगट गोपी उर अंतरको अनुराग॥ सारी पहिरि सुरंग कसि कंचुकी काजर दैदै नैन। बनि बनि निकसि निकसि भई ठाढी सुनि माधोके वैन॥ डफ बांसुरी रुंज अरु महुअरि बाजत ताल मृदंग। अति आनंद मनोहर वाणी गावत उठत तरंग॥ एक कोध गोविंद ग्वाल सब एक कोध ब्रजनारि। छांडि सकुच सब देति परस्पर अपनी भाई गारि॥ मिलि दश पांच अली बलि कृष्णहि गहि लावति उचका
रागमालकौशिक वीणाहाटककंकणेचदधतीपद्माक्षिपद्मानना वसकेरवपद्मकोमलसमंशास्त्रैपरंपंडिता॥ मालश्रीसखिसंयुतात्रिभुवने गीतार्थ पुंसाप्रिया भूपालीसहिताप्रियायकरुणामाकुर्वतीश्रीहठी॥१॥ श्यामांगःपतिवासामधुरिषु गलजोवंशवाद्यस्त्रिभंगीरत्नानां कँटमालोविरचिततिलकः कुंकुमैर्भालमध्ये॥ रागोयंमालकौशीप्रचरतिशिशिरेकंठदेशेजनानां प्रायः सूर्योदयादोः स्वरनिचयविदां तुष्टयभूषतीनाम्॥
-