गहै दंत॥ तुरत गए हरिलै मनाय। हरषि मिले उर कंठ लाय। दुख डारयो तुरतहि भुलाय। सोसुख दुहुँके उर नमाय॥ ऋतुवसंत आगमन जानि। नारिन राखो मानवानि॥ सूरदास प्रभु मिले आनि। रसराख्यो रतिरंग ठानि॥८८ ॥आयो जान्यो हरि ऋतुवसंत। ललना सुख दीन्हो तुरंत॥ फूले वरन २ सुमन पलास। ऋतुनायक सुखको विलास॥ संगनारि चहुँ आस पास। मुरली अमृत करत
भास॥ श्यामाश्याम विलास एक। सुखदायक गोपी अनेक॥ तजतनहीं काहू छनेक। अकल निरंजन विविध भेक॥ फागुरंग रस करत श्याम। युवतिन पूरन करन काम॥ वासरहू सुख देत याम। सूरश्याम बहु कंत वाम॥८९॥ देखत नव ब्रजनाथ आजु अति उपजतु है अनुराग। मानहु मदन वसंत मिलै दोउ खेलत फूले फाग॥ झांझि झालरिनि झरिनिसा डफ भँवर भोर गुँजार। मानहु मदन मंडली रचिपुर वीथिनि विपिन विहार॥ द्रुम गण मध्य पलाश मंजरी मुदित अग्नि
की नाई। अपने अपने मेरनि मानो उनि होरी हरषि लगाई॥ केके काग कपोत और खग करत कुलाहल भारी। मानहुँ लैलै नाउ परस्पर देत दिवावत गारी॥ कुंज कुंज प्रति कोकिल कूजति अति रस विमल बढ़ी। मानो कुलवधूनि लज्जाभय गृह गृह गावति अटाने चढी॥ प्रफुलित लता जहाँ जहँ देखत तहाँ तहाँ अलि जात। मानहु सबहिनमें अवलोकत परसत गणिकागात॥
लीन्हें पुहुप पराग पवनकर क्रीडत चहुँ दिशधाइ। रस अनरस संयोग विरहिनी भरि छांडति मनभाइ॥ बहुविधि सुमन अनेक रंगछबि उत्तम भांति धरे। मानो रतिनाथ हाथसो सबही लैलै रंगभरे॥ और कहालगि कहौं कृपानिधि वृंदाविपिन विराज। सूरदास प्रभु सब सुख क्रीडत श्याम तुम्हारे राज॥९०॥ सुंदर वर संग ललनाहो विहरत वसंत समय ऋतु आइ। सकल श्रृंगार बनाइ ब्रजसुंदरि कमलनयनपै लाइ॥ सरित शीतल बहत मंदगति रवि उत्तर दिशि आयो। अति रसभरी कोकिला बोली विरहिनि विरह जगायो॥ द्वादश वन रतनारे देखियत चहुँ दिशकेसू फूले। मौरे अंबुवा और द्रुम बेली मधुकर परिमल भूले॥ इत श्रीराधा उत श्रीगिरिधर इत गोपी उत ग्वाल। खेलत फागु रसिक ब्रजवनिता सुंदर श्यामतमाल॥ स्वावासाखि जवारा कुमकुमा छिरकत भरि केसरि पिचकारी। उडत गुलाल अबीर जोरतब विदिशदीप उजियारी॥ ताल पखावज बीन बाँसुरी डफ गावत गीत सुहाए। रसिक गोपाल नवल ब्रजवनिता निकसि चौहटे आये॥ झुमि झूमि झुमक सब गावति बोलति मधुरी वानी। देति परस्पर गारि मुदितमन तरुनी बाल सयानी॥ सुरपुर नर पुर नाग लोकपुर सबही अति सुखपायो। प्रथम वसंत पंचमी लीला सूरदास यशगायो॥९१॥ सुंदरवर संग ललना विहरी वसंत सरस ऋतुआई। लैलै छरी कुँवरि राधिका कमलनयन परधाई॥ द्वादश वन रतनारे देखियत चहुँदिश केसूफूले। मौरे अँबुवा और द्रुम बेली मधुकर परिमल भूले॥
सरिता शीतल बहत मंदगति रवि उत्तरदिशिआयो। प्रेम उमंगि कोकिला बोली विरहिनि विरह जगायो॥ ताल मृदंग वीन बाँसुरि डफ गावत मधुरी वानी। देत परस्पर गारि मुदितह्वै तरुणी बाल सयानी॥ सुरपुर नरपुर नागलोक जल थल क्रीडारस पावै। प्रथम वसंत पंचमी वाला सूरदास गुणगावै॥९२॥ खेलत नवल किसोर किसोरी। नँदनंदन वृषभानु तनय चित लेत परस्पर चोरी॥ औरौ सखी जलन विग सोभित सकल ललित तनु गावात होरी। तिनकी नख शोभा देखतही तरनि नाथहूकी मति भोरी॥ एक गोपाल अबीर लिए कर इक चंदन इक कुमकुमा रोरी। उपरा उपर छिरकि रस सर भरि बहु कुल क्रीडा परमिति फोरी॥ देति अशीश सकल ब्रजयुवती युग युग अविचर जोरी। सूरदास उपमा नहिं सूचत जो कछु कहो सुथोरी॥९३॥ श्रीहठी ॥ तेरे
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सूरसागर।