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'दुशमस्कन्ध-१० (४२९) ऋतुवसंत आयो समुझावति ॥ फागुचरित रस साथ हमारे । खेलहिं सबमिलि संग तुम्हारे ॥ सुनि सुनि सुरश्याम मुसकानेऋतुवसंत आयो हरपाने॥७९॥वसंत लीला।रागवसंतराधे जुआजवरणो वसंतामनहुँमदन विनोद विहरत नागरी नवकंतामिलत सन्मुख पाटल पटल भरत मान जुहीविलि प्रथम समाज कारण मदिनी कुच गुही ॥ केतकी कुच कलंस कंचन गरे कंचुकि कसी। मालती मद चलित लोचन निरखि मृदु मुख हँसी।विरह व्याकुल मेदिनी कुल भई वदन विकास । पवन परिमल सहचरी पिक ज्ञान हृदय हुलासाउत सखा चंपक चतुर अति कुंद मनोतनमालामधुप मणि माला मनोहर सूर श्रीगोपाल||८०॥वसंताऐसो पत्र पठायो ऋतुवसंतातजहु मान मानिनि तुरंत ।। कागजनवदल अंबुज पातादेति कलम मासि भवरसुगात ॥ लेखनि काम वाणके चापालिखि अनंग कसि दीनी छाप ॥ मलयाचनपठयो विचारि । वाचलल पिक सब नेह नारि ।। सरदास क्यों होई आन । भाज हरि गोपी तजी सयान ॥ ८१ ॥ वोग चलहु पिय चतुर सयानी । समय वसंत विपिन स्थ हय गज मदन सुभट नृप फौज पलानी ॥ चहुँ दिश चांदनी चमू चली मनहु प्रशंसित पिक वर वानी । धीर समीर रटत वन अलिगण मनहुँ कामकर मुरलि सुठानी ।। कुसुम शरासन वान विराजत मनहु मानगढ अनु अनुभानी । सूरदास प्रभुकी वेई गति करहु सहाय राधिका रानी॥८२॥वसंत॥ देख्यो श्री वृंदावन कमल नयन । मनु आयो है मदन गुण गुदर दयन ॥१॥ भए नवट्ठम सुमन अनक रंग। प्रति ललित लता संकुलित संग ॥ करधरे धनुप कटि कसि निखंग । मनौ वने सुभट साज कवच अंग ॥२॥ जहां वान सुमति है मलय वात । अति राजत रुचिर विलोल पात ॥ धपि धाय धरत मन तुरै गात । गति तेज वसन पाने उडाता ३॥ कोकिल कुंजल है हँस मोर । रथ शैल शिला पदचर चकोर। वर ध्वज पताक तरसार केरि निर्झरनिसान डफ भँवर भेरि ॥ ४॥ सूरदास इमि वदत वाल । करिकाम कृपण सवक्रोधकाल हसि चितय चारु लोचन विशाल । तेहि अपने करि थपिए गोपाल ||६||८३॥ वसंत ॥ राजत तेरे वदन शशिरी। किरनि कटाक्ष वाण वरसाधे भौंह कलंक कमान कसरी ॥ पीन पयोधर सघन उन्नत आति तापर रोमावली लसीरी। चक्रवाक खग चोच पुटीते मनुसे निवल मंजीर खसीरी। ज्यों नाभी सर एकनाल नव कनक कमल विवि रहे चसीरी। सूरज श्री गोपाल पियारी मेरी न अधतम धरा धसीरी॥४॥कोकिल बोली वन वन फूले मधुप गुंजारन लागे । सुनि भयो भोर रोर वंदिन को मदन महीपति जागे ॥ तिन दूने अंकुर द्रुम पल्लव जे पहिले दवदागे। मानहुँ रति पति गीझ याचकन वरन वरन दए वागे ।। नई प्रीति नई लता पुहुप नए नए नयन रस पागे । नए नेह नवनागरि हरपति सूर सुरंग अनुरागे ।।८५देख्यो श्री वृंदावन खेलहि गोपालासव बान ठनि आई ब्रजकी वाल ॥ नववल्ली सुंदरनव तमाल । नव कमल महा नव नव रसाल ॥ अपने कर सुंदर रचित माल । अवलंवित नागर नंदलाल ॥ नवकेसरि नव अरगजा चोरि । छिरकति नागरि कहां नवकिसोगिनिवगोप वधू राजही संग । गजमोतिन सुंदरि लसित मंग ॥ गोपीन ग्वाल सुंदर सुदेप। छिरकत सुगंध भये ललित भेपानंदनंदन के भ्रवविलासाआनंदित गावत सूरदास ॥८॥ पिय देख्यो वन छवि निहारि। बार बार यह कहति नारि ॥ नव पल्लव बहु सुमन रंगा द्वम वेली तनु भयो अनंग ॥ भंवरा भवरी भ्रमत संगायमुन करति नाना तरंग ।। त्रिविध पवन मनहरप दयन सदावहत नविरहत चयन।सूरज प्रभु करितुरग नयनाचले नारि मन सुखद मयन।। ८ आयोपिय || आयो ऋतुवसंतादंपतिमन सुख विरहिनि न अंत।।फागु खिलावहु संग कंत।हाहा करि करि तृण