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अंग अंग निरखि सोभाकी सीव नखीरी। रंगमगी शिरसुरंग पाग लटकि रही वामभाग चंपकली कटिल अलक विच बीच खरखीरी ॥ आयत हग अरुण लोल कुंडल मंडित कपोल अधर दशन दीपतिकी छवि क्योंहूं न जात लखीरी। उभय उदय भुज दंड मूल पीन अंशसानुकूल कन क मेखला दुकूल दामिनी धर खीरी ॥ उर पर मंदार हार मुकुता लर वर सुढार मत्त द्विरद गति त्रियनिकी देह दशा कर खीरी । मुकुटित वे नवकिसोर वचन रचन चितके चोर माधुरी प्रकाश अनूप मंजरी चखीरी । सूरश्याम अति सुजान गावत कल्यान तान सपत सुरन कल इते पर मुर लिंका वरषीरी॥६॥गौरीगटोटा कौनको इहरी । श्रुति मंडल मकराकृत कुंडल कनककंठ दुलरी। घन तन श्याम कमल दल लोचन चारु चपल तुलरी। इंदुवदन मुसुकानि माधुरी अकलन अलि कुलरी ॥ उर मुक्ताकी माल पीतपट मुरली सुर गौरी। पगनूपुर मणि जडित रुचिर अति काट किकिणि खरी।। बालक वृंद मध्य राजत हैं छवि निरखत भुलरी । सोइ सजीवन सूरदासकी महरि रहे उरी ॥६२॥ गौरी ॥ इह ढोटा नंदको है री। नहीं जानति वसति ब्रजमें प्रगट गोकुलरी॥धरयो गिरिवर वामकर जेहि सोई है यहरी । दैत्य सब इनही सँहारे आपु भुजबलरी ॥ ब्रज घरनि जो करत चोरी खात माखनरी। नंद घरनी जाहि वांध्यो अजिर उखलरी ॥ सुरभिगणलिए वनते । आवत सबइ गुण इनरी सूरप्रभु एसबहि लायक कस डरे जिनरी॥६३॥यशुमतिको सुत इहै कन्हाइ। इनहिं गोवर्द्धन लियो उठाइ ।। इंद्र परयो इनहींके पाँइ । इनहीकी बज चलत वडाइ ॥ वकी पिया वन इनहीं आई। योजन एक परी मुरझाई। इनहि तृणालै गयो उडाइ। पटक्यो द्वार शिला पर आइ ॥ केशी सुर इनहीं संहारयो । अघा बकासुर इनहीं मारयो । श्याम बरन तनुपीत पिछौरी। मुरली राग वजावत गौरी ॥ देखि रूप चकृत भई वाला । तनुकी सुधि न रही तेहि काला ॥ सूरश्याम को जानति नकि । मगन भई पूंछत सुख जीके ॥६॥ गौरी ॥ आव त बनते सांझ देखे मैं गायन माझ काहूको टोटारी एक शीश मोर पखिआं । अतिसी कुसम- जैसे चंचल दीरप नैन मानौ रसभरी जो लरति युगल झाखिआं । केसरि की खौरि किए गुंजा वनमाल हिय उपमा नकहि आवै जेती ते नाखां॥राजत पीत पिछोरी मुरली बजावै गौरी ध्वनि सुनि भई वौरी रही पलक अँखिचल्यो न परत पग गिरिपरी सूधे मग भामिनि भवन ल्याई करगहे कखिआं। सूरदास प्रभु चित्त चोर लियो मेरे जान और न उपाव दाँव सुनौ मेरी सखियां। ॥६६॥देवगंधार॥इक दिन हरि हलधर सँग ग्वालनाप्रातचले गोधनवन चारन॥ कोउ गावत कोउ वेणु बजावताकोउ सिंगी कोउ नाद सुनावत ॥ खेलत हँसत गए वन महियांचरन लगी जित कित सब गैया।।हरि ग्वालन मिाले खेलन लागोसूर अमंगल मनके भागे ॥६६॥अध्याय ॥ ३६ ॥ वृषभासुर वध केशी हेतु ॥ सोरगा यहि.अंतर वृषभासुर आयो। देखे नंदभुवन बालक सँग. इहै घात है पायो। गयो समाइ धेनुपति कै मनमें दाउँ विचारे। हार तबहीं लखि लियो दुष्टको डोलत धेनु विड़ा रे॥गैयां विडरि चली जित तितको सखा जहां तहां धेरै । वृषभ शृंगसों धरणि उकासत बल मो हन तन हे ॥ आवत चल्यो श्यामके सन्मुख निदार आपु. अँग सारी। कूदि परयो हरि ऊपर आयो कियो युद्ध अति भारी॥धाइ परे सबः सखा हाँक दे वृषभ श्यामको. मारयो । पाउँ. पकार भुजसों गहि फेरयो भूतल माँह पछारयो ॥ परचो.असुर. पर्वत समान है चकित भए सब ग्वाल । वृषभ ज़ानिक हम सब.धाए यह कोऊ विकराल ॥ देखि चरित्र यशोमति सुतके मन में करत विचार । सूरदास प्रभु असुर निकंदन संतन प्राण अधार।।६७॥गौरीगाधन्य कान्ह धनि । धनि ब्रज़ आए। आज सबनि धरिके. यह खातो.धनि तुम हमहि वचाए ॥ यह ऐसो तुम ‘अतिहि ।