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दशमस्कन्ध-१०


थार कटोरा जरित रतनके॥ भरि सब बासन विविध जतनके। पहिले पनवारो परसायो। तत्ब आपुन कर कौर उठायो॥ जेंवत रुचि अधिको अधिकैया। भोजनहूं विसरति नहिं गैया॥ शीतल जल कपूर रस रचयो। सोमोहन निज रुचि करि अचयो॥ महरि मुदित नित लाड लडावै। ते सुख कहा देवकी पावै॥ धरि तुष्टी झारी जल ल्याई। भरयो चुरूखरिका लै आई॥ पीरे पान पुराने वीरा। खातभई दुति दातनि हीरा॥ मृगमद कन कपूर कर लीने। बाँटि बाँटि ग्वालनको दीने॥ चंदन और अरगजा आन्यो। अपने कर बलके अँग वान्यो॥ तापाछे आपुनहूं लायो। उबरयो बहुत सखन पुनि पायो॥ सूरदास देख्यो गिरिधारी। बोलिदई हँसि जूठनि थारी॥ यह जेवनार सुनै जो गावै। सो निज भक्ति अभय पद पावै॥२१॥ बिलावलरामकली ॥ भोजन करत मोहनराइ। हरषि मुखतन देत मोहन आषु लेत छडाइ॥ देखहीं मुख नंदको तब आनँद उर नसमाइ। निरखि प्रभुकी प्रगट लीला जननि लेति बलाइ॥ नंदनंदन नीर शीतल अचै उठे अघाइ। सूर जूठन भक्तपाई देव रहे लुभाइ॥२२॥ बिलावल ॥ देख सखी ब्रजते बनआवत। रोहिणिसुत यशुमति सुतकी छबि गौर श्याम हरि हलधर गावत॥ नीलाँबर पीतांबर ओढे यह सोभा कछु कही नजात। युगल जलद युग तडित मनहुँ मिलि अरस परस जोरतहै नात॥ शीश मुकुट मकराकृत कुंडल झलकै विविध कपोलहिं भाँति मनहुँ जलद युग पास युगल रवि तापर इंद्र धनुषकी कांति॥ काटे कछनी कर लकुट मनोहर गोचारन चले मन उनमानि। ग्वाल सखा बिच श्रीनँदनंदन बोलत वचन मधुर मुसुकानि॥ चितै रहीं ब्रजकी युवती सब आपसहीमें करत विचार। गोधन वृंदलिए सूरज प्रभु वृंदावन गए करत विहार॥ २३॥ ग्वाल वचन श्रीकृष्णमति ॥ गौरी ॥ छबीले मुरली नेक बजाउ। बलि बलि जात सखा यह कहि कहि अधर सुधारसप्याउ॥ दुर्लभ जन्म दुर्लभ वृंदाबन दुर्लभ प्रेम तरंग। नाजानिये बहुरि कब ह्वैहै श्याम तुम्हारो संग॥ विनती करहिं सुबल श्रीदामा सुनहु श्याम दै कान। जा रसको सनकादि शुकादिक करत अमर मुनि ध्यान॥ कब पुनि गोप भेष ब्रज परिहों फिरिहौं सुरभिन साथ। कब तुम छाक छीनिकै खैहो हो गोकुलके नाथ॥ अपनी अपनी कंध कमरिया ग्वालन दई डसाइ। सौंह दिवाइ नंदबाबाकी रहे सकल गहिपाइ॥ सुनि सुनि दीन गिरा मुरलीधर चितए मुख मुसकाइ। गुणगंभीर गोपाल मुरालि कर लीन्हो तबहिं उठाय॥ धरिकर वेनु अघर मनमोहन कियो मधुर ध्वनि गान। मोहे सकल जीव जल थलके सुनि वारयो तन प्रान॥ चपलनयन भ्रुकुटी नाशापुट सुनि सुंदर मुखवैन। मानहु नृत्यक भाव दिखावत गति लिये नायक मैन। चमकत मोर चंद्रिका माथे कुंचित अलक सुभाल। मानहु कमलकोशरस चाखत उड़िआए अलिमाल॥ कुंडल लोल कपोलन झलकत ऐसी सोभा देत। मानहु सुधासिंधुमें क्रीडत मकर पानके हेत॥ उपजावत गावत गतिसुंदर अनाघातके ताल। सरवस दियो मदन मोहनको प्रेम हरषि सब ग्वाल॥ सोभित वैजंती चरणनपर श्वासा पवन झकोरि। मानहु ग्रीव सुरसरी बहि आवत ब्रह्मकमंडलु फोरि॥ डुलति लता नहिं मरुत मंदगति सुनि सुंदर मुख वैन। खग मृग मीन अधीन भए सब कियो यमुन जल सैन॥ झलमलात भृगुकी पदरेखा सुभग साँवरेगात। मानो षटविधु एकै रथ बैठे उदय कियो अधरात॥ वांके चरण कमल भुज बांके अवलोकनि जु अनूप। मानहु कल्पतरोवर विरवा आनि रच्यो सुरभूष॥ आयसु दियो गुपाल सबनको सुखदायक जियजान। सूरदास चरणनरज मांगत निरखत