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दशमस्कन्ध-१० (११) ॥ रथरविते धसी यमुन धरे विविधार ॥ विविधार धारा धसी अधक्यों स्फटिक पटुली संग । वहिनि कसि तिरछी वीच कै मिलि गगनते जनु गंग । ढिग जरित भरि मंजीर इत उत चरण पंकज रंग। प्रतिबिंब झलमल झलक मिलि सरस्वती आनि विनंगीवनमहल के द्वारे रच्यो नव रंग रंग हिंडोरा । मनो कोटि मन्मथ मोद मोहन तरुणी तरुण किसोर ।। बदन तन चित चोरि चितवत झलक लो चन को।शरद विधु मधु लुब्ध को मनु उडि उडि मिलत चकोराउडि मिलत तहां चकोर अति छवि ललित चलित सुखेन । मनु अंबुज वासको संग मिलि मधुकर ऐन । झमकि झमकि लेति दै द्रुमडी मचै रुचि कैन । गावति सुकंठ राग राज्ञी नागरि गिरिधर कीजित सैन ॥ कनक नूपुर कुनित कंकन किंकिनी झनकार । तहाँ कुँवरि वृपभानुकी सँग सोहै नंदकुमार। नील पीत दुकूल साँवल गौर अंग विकार । मानहु नौतन धन घटा में तडित तरल अकार ॥ अनमेप हग दिए देखेही मुख मंडली वरनारि । मानहुँ शृंगार नवीन तरुपति रची कंचन वारि ॥ हँसि हावभाव कटाक्ष चूंघट गिरत लेति सम्हारि। मनु हरन मुनि सोभा सुलैरति काम डारति वारि॥ अघउरथ झमकि झकोर इत उत झलक मोतिन माल । ऋतु समै सावन जानि मानौ वगपांति उड़त विसा ल॥श्रीशीश फूल अमोल तरिवन तिलक सुंदर भाल । सारी सुरंग मिलिनील लहँगा सोभित कंचुकी लाल । मन मुदित मोदित मानिनी मुख माधुरी मुसुकानि । ढर हरति ढरति हिंडोर डाँडी डरति धरि दुहुँ पानि ॥ उर उडत अंचल छोर छवि दुति पीतपट फहरानि । कहै सूर सो उपमा नहीं कहुँ नेति निगमहु गानि ।। ९० ॥ मलार ॥ गोपी गोविंदके हिंडोरे झूलन आय । रंगम हलमें जहँ नंदरानी खेलति सावनी तीज सुहाय ॥ श्रीखंड खंभ मयारि सहित सु सुमर मरुषा बनाइ। तापर कितिक जू भ्रमत भवरा डाँडी जटित जराइ ॥ हेम पटुली मध्य हीरा पूजि रोचन लाइसखी विविध विचित्र राज्ञी मलारी मंगलगाइनिंदलाल पावसकाल दामिनि नागरी नव संग। बोलत जु दादुर अरु पपीहि करति कोकिल रंग ॥ तहँ वरहा नृत्यत वचन मुख दुति अलिचकोर विहंग । बलि भाइ सहित गोपाल झूलत राधिका अधैग ॥ जलभरित सरवर सघन तरिवर इंद्र धनुप सुदेश । घनश्याम मध्य सफेद वग जुरि हरित महि चहुँ देश ॥ गगन गर्जत बीजु तरपति मधुर मेह असेश । झूलहि ते विह्वल श्याम श्यामा शीश मुकुलित केश ॥ ताटंक तिलक सुदेश झलकत खचित चूनी लाल । अकृत विकृत वदन प्रहसित कमल नैन विसाल ॥ करजु मुद्रिका किंकिनी कटि चाल गजगति वाल । सूर सुररिपु रंग रंगे सखी सहित गोपाल ॥ ९१ ॥ मुहवरािग ॥ झूलत सुंदर युगल किसोर । नँदनंदन वृपभानुनंदिनी पियत सुधारस नयन चकोर ॥ भृकुटी वक्र धनुप श्रीशोभित तिलकभाल भनो सायक जोर । मंद मंद मुसुकात श्याम घन निर खत करत कटाक्षन ओर ॥ अंजनको पति रंजन लागे राजत अधरन दशन तमोरं। मृगमद आड वने करकंकन मोतिन हार श्रृंगार न डोर ॥ लियो शिरते पढ झटकि मनोहर उपरि गए कुच कलस कठोर । सूर सु निरखि भएवश प्रीतम तव प्यारी सी करत निहोर ॥ ९२ ॥ अध्याय ॥३४॥विद्याधर शापमोचन शृंदावनविहार शंखचूडदानववध वर्णन ॥ बिलावल ॥ नंद सव गोपी ग्वाल समेत । गए सरस्वतीके तट एक दिन शिव अविका पूजा हेत ॥ पूजा करत सकल दिन वीत्यो होइ गई तहँ सांझ । व्रजवासी सब श्रमित होइक सोइरहे वनमांझ॥ अर्थ निशा इक उर्ग आयकै लपटि गयो नँदपाइ । चौंकि परयो दुखपाइ पुकारयो हाहा कृष्ण छुडाय ॥ ग्वालन मिलि श्रीकृष्ण जगाए छुवत पाइ अहि दीनो छोड । विद्याधरको रूप धारि -