जानि मन मोहन मन सुख आन्यो। मानो दव द्रुम जरत आश भयो उनयो अंबर पान्यो॥ जो भाई सो सौंह दिवाई तब सूधे मन मान्यो। दियो तमोर हाथ अपने करि तब होर जीवन जान्यो॥ हँसिकरि कह्यो चलौ हरिकुंजन हौं आवतिहौ पाछे। लकुटी मुकुट पीत उपरैना लालकाछनी काछे॥ गोदोहनकी बेर जानि सँग लिए बछरुवा आछे। जो न पत्याहु जाहु मुरलीधर हमहि तुमहि है साछे॥ सघनकुंज अलि पुंज तहाँ हरि किशलय सेज बनाई। आतुर जानि मदन मोहन तनु कामकेलि चलि आई॥ हँसेगोपाल अंकभरि लीनी मनहुँरंक निधि पाई। रति
विपरीति प्रीति पियप्यारी वर्णत वरणि नजाई॥ आलिंगन चुंबन परिरंभन दियो सुरति रस पूरो। छिटकिरही श्रमबूंद बदन पर अरु पांइन सुभि चूरो॥ मुखके पवन परस्पर सुखवत गहे पानि पिय जूरो। बूझत जानी मन्मथ चिनगी फिरि मनों दियो मरूरो॥ आलस मगन बदन कुँभिलानो बाला निर्बल कीन्हीं। थकित जानि मनमोहन भुजभरि प्रिया अंक भरि लीन्हीं॥ गोरे गात मनोहर सोहर रज फुलेलसों कंचुकि भीन्हीं। मनु मधु कलस श्यामताईकी श्यामछापसी दीन्हीं॥ इत
नागरी नवल नागर उत भिरे सुरति रणसोऊ। नैन कटाक्षबाण असिवर नख बरषि निदाने दोऊ टूटेहार कंचुकी दरकी घाइल मुरे नकोऊ। प्रगट्यो तेज तरनि पदवीकी लाज लजाने दोऊ॥ यहि डर रहत पीतांबरबोढे कहा कहौं चतुराई। भोरयो काम प्रेमहू भोरचो भुरई बैस भुराई॥ पति अरु प्रिया प्रगट प्रतिबिंबत ज्यों जल दर्पणझाई। अब जिनि कहै हिएमें कोहै बहुरि परी कठिनाई॥ करजोरे विनती करैं मोहन कहौ पाँइ शिरनाऊं। हौं सेवक निज प्राण प्रियाको यह कहि पत्र लिखाऊं॥ तेरी सो वृबभानुनंदिनी अनुदिन तुव गुण गाऊँ। अब जिन मान करहि मोसों हो इहै मौज करिपाऊँ॥ हँसिकरि उठि प्यारी उरलागी मान मैन दुखपायो। तुम मन देहु आन वनिता तो में मन काहि लगायो॥ लै बुलाइ उरलाइ अंक भरि पछिलो दुख विसरायो। श्याम मानहै प्रेम कसौटी प्रेमहि मान सहायो॥ छूटे बँद छूटी अलकावलि मरगजतनके वागे। अंजन अधर भाल जावक रँग पीककपोलन पागे॥ बिनु गुन माल पीठि गडिकंकन उपटि उठे उर लागे। रसिक राधिकाके सुखको सुख लूट्यो श्याम सभागे॥ नवल गोपाल नवेली
राधा नये नेह वश कीन्हे। प्राणनाथ सों प्राणपियारी प्राण लटकि सो लीन्हे॥ विविध विलास कला रसकी विधि उभै अंग परबीनो। अति हित मान मानतजि मानिनि मनमोहन सुखदीनो॥ श्रीराधा कृष्ण केलि कौतूहल श्रवण सुनैं जे गावैं। तिनके सदा समीप श्याम नितही आनंद बढावें॥ कबहुँ न जाहि जठर पातक जिनको यह लीला भावै । जीवन मुक्ति सूर सो जगमें अंत परमपद पावे॥७६॥ गुंडमलार ॥ राधिका वश्य करि श्याम पाए। विरह गयो दूरि जिय हरष हरिके भयो सहस मुख निगम जिनि नेति गाए॥ मान तजि मानिनी मैनको बल हरयो करत तनुकंतके त्रास भारी। कोक विद्या निपुण श्याम श्यामा विपुल कुंजगृह द्वार ठाढे मुरारी॥ भक्तहित हेतु अवतार लीला करत रहत प्रभु तहां निज ध्यान जाके। प्रगट प्रभु सूर ब्रजनारिके हित बँधे देत मनकाम फल संग ताके॥७७॥ हिंडोरलीलाको सुख ॥ श्रीकृष्ण राधिका गोपिन संग झूलहिंगे ॥ रागमारू ॥ वृंदावन श्यामलघन नारि संग सोहैजू। ठाढे नवकुंजनतर परमचतुर गिरिधर वर राधा पति अरस परस राधा मनमोहैजू॥ नीपछाँह यमुनतीर ब्रजललना सुभगभीर पहिरे अंग विविध चीर नवसत सब साजै। बार बार विनय करति मुख निरखति पाँइ परति पुनि पुनि कर धरति हरति पियके मन काजै॥ विहँसति प्यारी समीप घनदामिनि संग रूप कंठ गहति कहति कंत झूल
पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५०४
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(४११)
दशमस्कन्ध-१०