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सूरसागर।


मानिनी मानो पाषान॥७०॥ धनाश्री ॥ प्यारी अंश परायो दैरी। मेरी सीख सुन रसिकराधिका मनमें न्याउ चितैरी॥ आप आपनी तिथिवाई दुहि अचवत अमरसवैरी। हर सुरेश सुर शेष समुझि जिय क्यों प्रभु पान करैरी॥ वह झूठो शशि जानि बदन विधु रच्यो विरंचि इहैरी। सौंप्यो सुपत बिचारि श्यामहित सुतूँ रही लटि लैरी॥ जाकी जहां प्रतीति सूर सो सर्वस तहां सचैरी। सिंधु सुधानिधि अर्पि अबहिं उठि विधु पुनि नहीं पचैरी॥ विहागरो॥७१॥ राधिका हरि अतिथि तुम्हारे। रति पति अशन काल गृह आए उठि आदर करि कहे हमारे॥ आसन आधी सेज सरकिदै सुख पैहै पद हरषि पखारे। अर्ध्यादिक आ नंद अमृतमें ललित लोल लोचन जलधारे॥ धूप सुवास ततक्षण वश करि मन मोहत हासे दीप उजारे। वचन रचन भ्रुव भंग अवर अंग प्रेम मधुर रस परसि निन्यारे॥ उचित केलि कटु तिक्त त्यागि षट अमल उलटि अंकम हठिहारे। नख छत छार कसाई कुच गृह चुंबन सर्पि समर्पि सवारे॥ अधर सुधा उपदंशसीक शुचि विधु पूरण मुखवास सचारे। सूर सुकृत संतोषि श्याम को बहुत पुण्य यह व्रत प्रतिपारे॥७२॥ धनाश्री ॥ अब मोहिं जानिए सो कीजै। सुन राधिका कहत माधो यों जो बूझिए दंड सो लीजै॥ उर उर चापि बाँधि भुज बंधन नखनाराच मर्मतकि दीजै। भौंह चढ़ाइ रिसाइ दशन दसि अधर सुधा अपने मुख पीजै॥ जिनि करै विलंब भामिनी सुरससोई करौ जेहि गात पसीजै। ग्रंथि गुणनि गहि गूढ गांठि दै छुटै न कबहूं श्रम जल भीजै॥ सुन साखि सुमुखि पाँइ लागतिहौं दंपति अरस परस तनु छीजै। सूरश्याम सँग रस मिलि विलसहु जीवन सफल इहै सुख लीजै॥७३॥ गुंडमलार ॥ गह्यो दृढ मान वृषभानु वारी। दुलै वरु स्वर्ग सुरपति सहित सुरनसों दुलै कंचन मेरु रहि निहारी॥ रैनि रवि उठौ वासर चंद्र होइ वरु दुलै सबनखत यह होइ भाषै। धरणि पलटै सिंधु मर्यादको तजै शेष शिर दुलै नहिं माननाषै॥ बाँझ सुत जनै उकठे काठ पल्लवै विफल तरु फलै बिन मेघ पानी। सूर प्रभु यह सुनौ वरु अचल चल थकै मनाहि मन दूतिका कहति बानी॥७४॥ कान्हरो ॥ दूती यह अनुमान करै। कासों कहौं सुनै को मेरी कैसे कह्यो परै॥ हरि पठई मोको आतुर करि यह जिय सोच करै। कैसे वचन कहौं या आगे यह अनुमान करै॥ चतुर चतुरई फवै न यासों सुनि रिस अतिहि करै। सूर सहजही मान मनाऊँ जो यह कबहुँ करै॥७५॥ मानलीला ॥ मलार ॥ ॥ मान मनायो राधा प्यारी। दहियत मदन मदननायकहो पीर परिते न्यारी॥ तू जुझुकतहै और रूसने अब कहि कैसे रूषी। बिनही शिशि रतमक तामसते तुव मुख कमल बिदूषी॥ सुनियत विरद रूप रसनागरि लीन्ही पलटि कछूषी। तेरेहती प्रेम संपति सखी सो संपति केहि मूषी। उन तन चितै आप तन चितवहु अहो रूपकी राशी। पिय अपनो नाहोइ तऊ ज्यों ईश सेइए कासी॥ तुमतौ प्राण प्राण वल्लभके वै तुव चरण उपासी। सुनिहै कोऊ चतुर नारि कत करत प्रेमकी हासी॥ ज्यों ज्यों मौन भई तुम उनके वाढी आतुरताई। कान्ह आन वनितारति सुनि सुनि जिय बैठी निठुराई॥ हिए कपाट जोर जडिताके बोलत नहीं बुलाई। हा राधा राधा रट लागी चित चातकी कन्हाई॥ जोपै मानत भाँवरि नाहीं भाँवरि मान नहोई। हियते वादि प्रेम रति वतिहौ अंत भाव तो सोई॥ जो गौरी पिय नेह गरवतौ लाख कहैकिन कोई। काहू लियो प्रेम परचो वह चतुर नारिहै सोई॥ कत होरही नारि नीची करि देखत लोचन झूले। मानहु कुमुद रूठि उडपति सों किए धर्म मुख फूले॥ वैतौ हित वृषभानु नंदिनी सेवत यमुना कूले। तेरे तनक मान मोहनके सबै सयानप भूले॥ अहो इंदु वदनी सुन सजनी