नि मानो शिर धरिकै रुद्रनि करी पुकार॥ राख्यो मेलि पीठिते परधन हर जु कियो बिनहार। सुरदास प्रभु सों हठ कीन्हों उठि चल क्यों न सवार॥१३॥ सारंग ॥ बोलत हैं तोहि नंद किसोर॥ मान छांडि सखी नैकचितैरी पैयांलागौं करौं निहोर॥ तरिवन तिलक बनी नकवेसरि चक्षु काजर
मुख सुरंग तमोर। सब श्रृंगार बन्यो योबन पर लै मिलि मदन गोपाल अकोर॥ लताभवन में सेज बिछाई बोलत सकल विहंगम मोर। सूरदास प्रभु तुम्हरे दरशको ज्यों दामिनि घन चंद चकोर॥१४॥ केदारो ॥ चलराधे बोलत नंद किसोर। ललित त्रिभंग श्याम सुंदर घन नाचत ज्यों बन मोर॥ छिन छिन विरस करतिहै सुंदरि क्यों बरहत मनमोर। आनँदकंद चंद वृंदावन तू करि नैन चकोर॥ कहा कहौं महिमा तु अभागकी पुण्य गनत नहिं और। सूरसखी पिय पै चलिनागरि लै मिलि प्राण अकोर॥ तोहिं बोलैरी मधु केशी मथन। यमुना कूल अनुकूल तृषारत चकित विलोकत सकल पथन॥ नकरु बिलंब भूषण कृत दूषण चिहुर विहुर नाना करनगयन। समुद कुमुद गति मकर मिलन दुति पसित भए सब नाथ नथन॥ निकुंजनिकी सैन साजे एकाएकी रमत सखी बियो नसघन। अति जु कुसुमवास सखीरी तुम्हारी आश हरिजू रचि धरे अपने हाथन॥ युगजुजातपल श्रीगोपालके कुटिल तमकिरी चढे हैं रथन। सुरदास
अति गति कामरत वासरगत भयो तुम्हरी कथन॥१५॥ सारंग ॥ माननि मान मनायो मोर। हौं माई पठई हौं तोपै प्रीतम नंदकिसोर॥ तेरे विरह वृषभानुनंदिनी मोहन बहरावत डोर। तानतरंग मुरलि में लैलै नाम बुलावत तोर॥ बलि तुहि जाउ वेगि लै मिलऊ श्यामसरोज बदन तुव
गोर। सूरदास ऐसी दृष्टि सुधानिधि चरणकमल कमला चितचोर॥१६॥ माननि नैक चितै यहि वोर। नाशत तिमिर बदन प्रकाशते ज्यों राजत रविभोर॥ तुव मुख कमल मधुप मेरोमन विंध्यो नैनकी कोर। वक्रविलोक माधुरी मुसुकनि भावतहै प्रियतोर॥ अंतर दूरि करौ अंचलको होइ मनोरथ मोर। सूर परस्पर रहौ प्रेमवश दोउ मिलि नवलकिसोर॥१७॥ नट ॥ कहि पठई हरिबात
सुचितदै सुनि राधिका सुजान। तैंजु वदन झाँप्यो झुकि अंचल इहै न दुख मेरे मन मान॥ यहपै दुसह जु इतनेहि अंतर उपजि परै कछु आन। शरद सुधा शशिकी नक्कीराति सुनियत अपने कान॥ खंजरीट मृग मीन मधुप पिक कीर करत हैं गान। विद्रुम अरु बंधूप बिंब मिलि देत कविन छबिदान। दाडिम दामिनि कुंदकली मिलि बाड्यो बहुत बखान॥ सूरदास उपमा नक्षत्रगन सब सोभित विनभान॥१८॥ सारंग ॥ रहीदै घूंघटपटको वोट। मनो कियो फिरि मान मवासों मन्मथ वंकट कोट। नहसुत कलि कपाट सुलक्षण दै दृग द्वार अगोटो। भीतर भाग कृष्णभूपतिको राखि अधर मधु मोटो॥ अंजन आड तिलक आभूषण सचि आयुध बड छोट। भृकुटी सूर गही करसारँग निकर कटाक्षनिचोट॥१९॥ बिलावला ॥ तैं जु नीलपट वोट दियोरी। सुन राधिका श्यामसुंदरसों बिनहि काज अति रोष कियोरी॥ जलसुत किरनि महाइक सोभा किधौं जलमें प्रतिबिंब विराजत मनहुँ शरद शशिराहु लियोरी। भूमि घिसनि किधौं कनकखंभ चढि मिलि रसहीरस अमृतपियौरी॥ तुम अतिचतुर सुजान राधिका कत राख्यो भरि भानु हियोरी। सूरदास प्रभु अँग अँग नागरि मनो काम कियो रूप वियोरी॥२०॥ सारँगरिपुकी ओट रहे दुरि सुंदर
सारँग चारि। शशि मृग फनिग ध्वनिग दोउ अँग सँग सारँगकी अनुहारि॥ तामें एक और सुत सारँग बोलक बहुरि विचारि। परकृत एक नामहैं दोऊ किधौं पुरुष किधौं नारि॥ ढाकति कहा प्रेमहित सुंदरि सारँग नैक उघारि। सूरदास प्रभुमोहे रूपहि सारँग बदन निहारि॥२१॥ यहि तेरे वृंदावन
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सूरसागर।