सुत लग्यो अधर पर यह छबि कही न जाइ। मनों बंधूक सुमन ऊपर विय अलिसुत बैठे आइ॥ कुच कुमकुम अवलेप तरुनि किए सोभित श्यामलगात। गत पतंग राका शशिविय संग घटा सघन सोभात॥ श्याम हृदय छलने ता ऊपर लगी करज कृत रेष। मनहुँ वसंतराज रुचि की रति अरुण किसलतरु भेष॥ कामबाण वर लिए पंच चितवत प्रति अँग अँग लाग। अब न जान गृह देउँ पियारे जब आए तब भाग॥ तादिनते वृषभानुनंदिनी अनत जान नहिं दीन्हें। सूरदास प्रभु प्रीति पुरातन यहि विधि रस वश कीन्हें॥८६॥ अथ बडोमानसमय ॥ बिलावल ॥ सखियन सँग लै राधिका निकसी ब्रजखोरी। चली यमुन स्नानको प्रातहि उठि गोरी॥ नंदसुवन जा गृह बसे तेहि
बोलन आई। जाइ भई द्वारे खरी तब कढे कन्हाई॥ औचक भेट भई तहां चकृत भए दोऊ। ये इतते वै उतहिते नहिं जानत कोऊ॥ फिरी सदनको नागरी सखि निरखत ठाढी। स्नान दानकी सुधि गई अति रिस तनुबाढी॥ श्याम रहे मुरझाइकै ढग मूरी खाई। ठाढे जहँके तहँ रहे सखियन समुझाई॥ इतनेहीके ह्वै गए गहि बाँह लै आई। सूरज प्रभुको ले तहां राधा दिखराई॥ रामकली ॥ राधहि श्याम देखी आइ। महामान दृढाय वैठी चितै कापै जाइ॥ रिसहि रिस भई मगन सुंदरि श्याम अति अकुलात। चकितह्वै जकि रहे ठाढे कहि न आवै बात॥ देखि व्याकुल नंदनंदन सखी करति विचार। सूर प्रभु दोउ मिले जैसे करो सोइ उपचार॥८७॥ कान्हरो ॥ सखी एक गई मानिनि पास। लखति नहिं कछु भाव ताको मिटी मनकी आस॥ कहौं कासों कौन सुनिहै रिसनि नारि अचेत। बुद्धि सोचति त्रिया ठाढी नेक नहीं सुचेत॥ श्याम व्याकुल अतिहि आतुर यहि कियो दृढ़ मान। सूर सहचरि कहति राधा बड़ी चतुर सुजान॥८८॥ कान्हरो ॥ गहिं तेरो अतिही हठ नीको। मेरो कह्यो सुनहु ब्रज सुंदरि मान मनायो नागर पियको॥ सोइ अतिरूप सुलक्षणनारी रीझे जाहि भावतो जीको। प्यासे प्राण जाइँ जो जलबिनु पुनि कह कीजै सिंधु अमीको। तो जू मान तजहुगी भामिनि रविकी रसमि कामफल फीको। कीजै कहा समय बिनु सुंदरि भोजन पीछे अचवनघीको॥ सूरस्वरूप गर्व जोबनके जानतिहौ अपने शिर टीको। जाके उदय अनेक प्रकाशत शशिहि कहा डर कमल कलीको॥८९॥ सारंग ॥ चितयो चपल नैनकी कोर। मन्मथ बाण दुसह अनियारे निकसे
फूटि हिए वहि ओर॥ अति व्याकुल धुकि धराण परे जिमि तरुण तमाल पवनके जोर। कहुँ मुरली कहुँ लकुट मनोहर कहुँ षट कहूँ चंद्रिका मोर॥ खन बूडत खनहीखन उछलत विरह सिंधुको बढो हिलोर। प्रेम सलिल भीज्यो पीरोपट फट्यो निचोरत अंचल छोर॥ फुरैं न वचन नैन नहिं उघरत मानहुँ कमल भए बिनुभोर। सूर सुअधर सुधारस सींचहु मेटहु मुरछा नंदकिसोर॥९०॥॥ नट ॥ राधे तेरे नैन किधौं मृगवारे। रहत न युगल भौंह युग योते भजत तिलक रथ डारे॥ यदपि अलक अंजन गहि बांधे तऊ चपल गति न्यारे। घुंघट पट वागरज्यों बिड़वत जतन करत शशि हारे॥ खुटिला युगल नाक मोती मणि मुक्तावलि ग्रीव हारे। दोउ रुख लिये दीपका मानों किये जात उजियारे॥मुरलीनाद सुनत कछु धीरज जिय जानत चुचकारे। सूरदास प्रभु रीझिरसिक पिय उमन प्राण धनवारे॥९१॥ राधे तेरे नैन किधौंरी बान। यों मारै ज्यों मुरछि परैधर क्यों करि राखे प्रान॥ खगपर कमल कमल पर केदलि केदलि पर हरि ठान। हरि पर सर सरवर पर कलसा कलसा पर शशिभान। शशिपर बिंब कोकिला ताबिच कीर करत अनुमान॥ बीच बीच दामिनि दुति उपजत मधुप यूथ असमान॥ तू नागरि सब गुणनि उजागरि पूरण कला निधान। सूरश्याम तो दरशन कारण व्याकुल परे अजाना॥९२॥ नट ॥ राधे तेरे नैन किधौं वटपारे।
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दशमस्कन्ध-१०