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दशमस्कन्ध-१० (३९७) - सँग जगे यामके । अपने मन हरि सोच करत यह परी चिया फँग कठिन तामके ।। मान कियो मोतन फिरि बैठी आए हैं यह सुनत नामके । सूरश्याम इक बुद्धि विचारी मनमोहन रति सहित कामके ॥६॥गृही ॥ श्याम सैनदै सखी बोलाई । यह कहि चली जाउँ गृह अपने तू तो.मान कि योरी माई ॥ अंतर जाइ भए हरि ठाढे सखी सहज निकसी तहँ जाई । मुख निरखत दोउ हँसे परस्पर भवन जाहु मैं लेउँ मनाई ।। अंग दिखाइ गई हँसि प्यारी सूरति चिह्ननिकी सुघराई। सुर प्रभू गुन पार लहे को जानी वृझि करी रिसहाई॥६९॥विलावलाइहै कही कहि मौन रही । मन मन कहति दरश अब दीन्हों निशि सब रैनि डही ॥ मधुरे वचन सुनाइ सखी सो रिस वश भरे कही। आए कहां जाहिं ताहीके चतुर त्रिया ढिगही ॥ वा विन उनको कौन मिलेगी नहि कोउ फिरति वही । सूरज प्रभु इतको जिनि आवें पग धारै उतही ॥ ७० ॥ गौरी ॥ सखी गई कहि लेउँ मनाई। ज्ञाननमणि विद्यामणि गुणमणि चतुरनमणि चतुराई । प्रिया हृदय यह बुद्धि उपाई ह्यां तो नहीं कन्हाई । आतुर चली यमुनजल खोरन काहू संग न लाई ॥ पहुँची जाइ ते रवितनया तट न्हाइ चली भतुराइ । सूरश्याम मारग भए ठाढे वालक मोहनराइ ॥७१ ॥ ॥विलावल । पाँचवरसके लाल है त्रिय मोहन आए। नागरि आगे 8 गई तब बोल सुनाए । कह्यो कहारी जाति है काकी तू नारी। मोहिं पठाई श्यामले जाकी तू प्यारी ॥ यह सुनि नारि चकित भई आपुन तहां आए। तब करसां कर गहि लियो देखत मन भाए ॥ अगम चरित प्रभु सूरके ते लखे न कोई । श्याम नाम श्रवणन परयो हरपी मुख जोई ।।.७२ ॥ रामफली ॥ हरपी निरखि रूप अपार | गह्यो करसों सदन ल्याई जानि गोपकुमार ॥ श्याम मोको बोलि पठई कहत है यह लाल। भवनले इन भेद बूझो सुनों वचन रसाल ॥ हृदय आनंद भई वाला प्रेमरस वेहाल । कुँवार अंतःपुर गई ले रच्यो हरि तहां ख्याल | तरुण है कार उरज परसे दियो अंचल डारि। सूर प्रभु हसि लई प्यारी भुजन अंकम धारि ॥७३॥ टोही । मुख निरखत त्रिय चकित भई । जो देखी अति तरुण कन्हाई यह को लखै दई ॥ छोडिदेहु ऐसे मन मोहन हँसिं मन लजित भई। ऐसे छंद चरित पिय धनि धनि कीन्ही करनि नई ।। अंकम भार त्रिय कंठ लगाई कुच उर चापि लई । सूर श्याम मानिनि मन मोहन रतिरससों भोगई।७४॥विलावल॥श्याम मनाई माननी हरपित भई अंग। रैनि विरहतनको गयो जे करेअनंग ।। सुतामहर वृपभानुकी सुधिकीनी श्याम । ताको सुख दे हरि चले प्यारीके धाम ।। प्यारी आवत पिय लखे चितई मुसकाइ । जिय डरपे मोहिं देखि के सुख कहो न जाइ ।अब न पियहि उचटाइ हो मोको सरमात । त्रास करत मेरी जिती आवत सकुचातआनिद्वार ठाढे भए नायक बहु नाम। सुरप्रभु अंग सहजही निरखति रुचिसो वाम।।७६॥ ॥ गुंडमटार ॥ झ्याम डर वाम निज धाम आए। उतहि प्रमुदा धाम सखी सहजहि गई अंगके चिह्न कर और पाए ॥ देखि हरपी नारि सकुच दीन्ही डारि अतिहि आनंद भरी श्याम रंगी। सखी बूझति ताहि हँसत जामुख चाहि श्यामको मिलीरी वनी चंगी ॥ कहन लागी कहा कहत तू आज मोहिं ताहि नाहीं करति दुरति कैसे मिले प्रभु सूर तोहिं जानि यह चतुरई नहीं तू करति नहिं लखति जैसे ॥ ७६ ॥ सूही निनातो अति रँगीले चिहुर छूटे छबीले काजर पीक लागिले आरसी देख । मरगजे वसन अधर दशनाने छत कहुँ कहुँ नीको लागी चंदन रेख ॥ काहेको तू मोहि दुरावतिरी सजनी जानी अरस परस छवि शेप । सूरदास प्रभु नंदसुवन सँग अवहीं सुरति रंगकोसो भेप७७॥ ॥विलावल||अब तू कहा दुरावैगीमोहि कहत नहि काहि कहैगी कालौं वात लुकावैगी।मोसी और कौन - D -