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दशमस्कन्ध-१०


सँग जगे यामके। अपने मन हरि सोच करत यह परी त्रिया फँग कठिन तामके॥ मान कियो मोतन फिरि बैठी आए हैं यह सुनत नामके। सूरश्याम इक बुद्धि विचारी मनमोहन रति सहित कामके॥६७॥ सूही ॥ श्याम सैनदै सखी बोलाई। यह कहि चली जाउँ गृह अपने तू तो मान कि योरी माई॥ अंतर जाइ भए हरि ठाढे सखी सहज निकसी तहँ जाई। मुख निरखत दोउ हँसे परस्पर भवन जाहु मैं लेउँ मनाई॥ अंग दिखाइ गई हँसि प्यारी सूरति चिह्ननिकी सुघराई। सुर प्रभू गुन पार लहै को जानी बूझि करी रिसहाई॥६९॥ बिलावल ॥ इहै कही कहि मौन रही। मन मन कहति दरश अब दीन्हों निशि सब रैनि डही॥ मधुरे वचन सुनाइ सखी सों रिस वश भरे कही। आए कहां जाहिं ताहीके चतुर त्रिया ढिगही॥ वा बिन उनको कौन मिलेगी नहिं कोउ फिरति बही। सूरज प्रभु इतको जिनि आवैं पग धारैं उतही॥७०॥ गौरी ॥ सखी गई कहि लेउँ मनाई। ज्ञाननमणि विद्यामणि गुणमणि चतुरनमणि चतुराई। प्रिया हृदय यह बुद्धि उपाई ह्यां तौ नहीं कन्हाई। आतुर चली यमुनजल खोरन काहू संग न लाई॥ पहुँची जाइ ते रवितनया तट न्हाइ चली अतुराइ। सूरश्याम मारग भए ठाढे बालक मोहनराइ॥७१॥॥ बिलावल ॥ पाँचबरसके लाल ह्वै त्रिय मोहन आए। नागरि आगे ह्वै गई तब बोल सुनाए। कह्यो कहारी जाति है काकी तू नारी। मोहिं पठाई श्यामले जाकी तू प्यारी॥ यह सुनि नारि चकित भई आपुन तहां आए। तब करसो कर गहि लियो देखत मन भाए॥ अगम चरित प्रभु सूरके ते लखै न कोई। श्याम नाम श्रवणन परयो हरषी मुख जोई॥७२॥ रामकली ॥ हरषी निरखि रूप अपार। गह्यो करसों सदन ल्याई जानि गोपकुमार॥ श्याम मोको बोलि पठई कहत है यह लाल। भवनलै इन भेद बूझो सुनों वचन रसाल॥ हृदय आनँद भई बाला प्रेमरस बेहाल। कुँवरि अंतःपुर गई लै रच्यो हरि तहां ख्याल॥ तरुण ह्वै करि उरज परसे दियो अंचल डारि। सूर प्रभु हँसि लई प्यारी भुजन अंकम धारि॥७३॥ टोडी ॥ मुख निरखत त्रिय चकित भई। जो देखी अति तरुण कन्हाई यह को लखै दई॥ छांडिदेहु ऐसे मन मोहन हँसि मन लजित भई। ऐसे छंद चरित पिय धनि धनि कीन्ही करनि नई॥ अंकम भार त्रिय कंठ लगाई कुच उर चापिलई। सूर श्याम मानिनि मन मोहन रतिरससों भोगई॥७४॥ बिलावल ॥ श्याम मनाई माननी हरषित भई अंग। रैनि विरहतनको गयो जे करे अनंग॥ सुतामहर वृषभानुकी सुधिकीनी श्याम। ताको सुख दै हरि चले प्यारीके धाम॥ प्यारी आवत पिय लखे चितई मुसकाइ। जिय डरषे मोहिं देखिके सुख कह्यो न जाइ॥ अब न पियहि उचटाइ हौं मोको सरमात। त्रास करत मेरी जिती आवत सकुचात॥ आनिद्वार ठाढे भए नायक बहु नाम। सूरप्रभु अंग सहजही निरखति रुचिसों वाम॥७५॥॥ गुंडमलार ॥ श्याम डर वाम निज धाम आए। उतहि प्रमुदा धाम सखी सहजहि गई अंगके चिह्न कछु और पाए॥ देखि हरषी नारि सकुच दीन्ही डारि अतिहि आनँद भरी श्याम रंगी। सखी बूझति ताहि हँसत जामुख चाहि श्यामको मिलीरी बनी चंगी॥ कहन लागी कहा कहत तू आज मोहिं ताहि नाहीं करति दुरति कैसे। मिले प्रभु सूर तोहिं जानि यह चतुरई नहीं तू करति नहिं लखति जैसे॥७६॥ सूही ॥ नैनातो अति रँगीले चिहुर छूटे छबीले काजर पीक लागिले आरसी देख। मरगजे वसन अधर दशननि छत कहुँ कहुँ नीकी लागी चंदन रेख॥ काहेको तू मोहिं दुरावतिरी सजनी जानी अरस परस छबि शेष। सूरदास प्रभु नंदसुवन सँग अबहीं सुरति रंगकोसो भेष॥ ७७॥॥ बिलावल ॥ अब तू कहा दुरावैगी। मोहिं कहत नहिं काहि कहैगी कबलौं बात लुकावैगी॥ मोसी और कौन