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सूरसागर।


ढारै॥ उर हारावलि मेलति कमलन मनहुँ इंदु पारस ढिग पारै। सूरश्यामके नामहि जीतन कमलापतिके पदहि विचारै॥६७॥ आसावरी ॥ अंग श्रृंगार सँवारि नागरी सेज रचत हरि आवहिंगे। सुमन सुगंध रचत तापर लै निरखि आइ सुख पावहिंगे॥ चंदन अगर कुमकुमा मिश्रित श्रमते अंग चढावहिंगे। मैं मनसाध करौंगी सँगमिलि वै मन काम पुरावहिंगे॥ रति सुख अंत भरौंगी आलस अंकमभरि उरलावहिंगे। रस भीतर मैं मान करौंगी वै गहिचरण मनावहिंगे॥ आतुर जब देखों पिय नैनन वचन रचन समुझावहिंगे। सूरश्याम युवती मनमोहन मेरे मनहिं चुरावहिंगे॥५८॥ नंदसुवन बहुनायकी अनतहि रहे जाई। वह अभिलाष करतरही ताको बिसराई। वासर ऐसेही गयो निशि याम तुलानी। नारिपरी अति सोचमें विरहा अकुलानी॥ आवन कहि गए सांझही अजहूं नहिं आए। कीधौं कतहूं रमिरहे फँगपरे पराए॥ वेईहैं बहुनायकी लायक गुणभारी। सूरश्याम कुमुदा भवन सुधि करि पगधारी॥५९॥ केदारो ॥ रहे हरि रौनि कुमुदा गेह। परस्पर दोउ प्रेम भीजे बढ्यो अतिहि सनेह॥ एक क्षण इक याम बितवति कामरस वशगात। ताहि बीतत याम युगसम गनत ताराजात॥ उनहि वैसेइ याहि ऐसे रजनि गई भयो भोर। सूर मोसों करि चतुरई गए नंदकिशोर॥६०॥ नट ॥ कुटिलई करी हरि मोसों। चित्त चिंता भरी सुंदार करति मनगोसों॥ कहिगए निशि आइहैं हरि अनत विरमें जाइ। रैनि बीती उदित दिनकर देखि त्रिय मुरझाइ॥ भवनही मनमारि बैठी सहज सखि इक आइ। देखि तनु अति विरह व्याकुल कहति वचन सुनाइ॥ बोलि ढिग बैगरि ताको पोंछि लोचन लोर। सूरप्रभुके विरह व्याकुल सखी लखि मुख ओर॥६१॥ गौरी ॥ आजु तोहिं काहे आनँद थारे। यह विपरीति सखी तो महियां इन्द्र बिन्दु इकठोर॥ हरदावन संतत अधिकारी ज्यों विधु चंद्रचकोर। दधि गृह युगल तू क्यों न बनावति विगसत अंबुज भोर॥ कंपित श्वास त्रास अति मोकति ज्यों मृग केहरि कोर। सूरदास स्वामी रतिनागर तौ न हरयो मनमोर॥६२॥ गौरी ॥ आजु विनु आनँदको मुख तेरो। कहा रही मनमारि भोरहीं अतिव्याकुल मनमेरो॥ मोसों गोप करै जिनि सुंदरि नहिं पावति वह भाव। सुनौं बात कैसी उपजीहै कछु जिनि करै दुराव॥ तब बोली मधुरी वाणी सों कहा कहौंरी तोहिं। तेरे श्याम भले गुणनागर कपटी कुटिल कठोहिं॥ निशिवसिवेकी अवधि वदी मोहिं साँझ गए कहि आवन॥ सूरश्याम अनतहि कहुँ लुब्धे नैनभये दोउ सावन॥६३॥ सोरठ ॥ ऐसे गुण हरिकेरी माई। मैं पहिचानि रहीहौं नीके कुटिल शिरोमणिराई॥ अब मोसों उनसों कहवनिहै कछु मैं गई बुलावन। आपुहि काल्हि कृपा यह कीन्ही अजिर करिगए पावन॥ तोसों मिलै कहूं मेरी सो तिनसों तू यह कहिए। सूरदास प्रभु बोलनि सांचे लाज कछू जिय गहिए॥६४॥ विहागरो ॥ सखीरी और सुनहु इक बात। आजु गोपाल हमारे आए उठि करि नहिं मिसि प्रात॥ कतहूं रैनि उनीदे मोहन अपने गृहतन जात। आगे द्वार नंदहें ठाढे ताते गए न सकात॥ डगमगात डग धरत परत पग आलस वंत जम्हात। मानहु मदन दंड दै छाँडे चुटकी दैदै गात॥ जो मैं कह्यो कहां रहे मोहन तौ सन्मुख मुसकात। ताते कछू न उत्तर आयो सूरश्याम सकुचात॥६४॥ केदारो ॥ तब हरि यह चतुरई करी। कह्यो मेरे धाम आवन टारदै गए हरी॥ आपुही श्रीमुख गए कहि सही कैसी परी। सेज रचि सब रैनि जागी तब रिसनि हौं जरी॥ श्याम देखे द्वार ठाढे मनहिं मनझहरी। कहत सूर सुनाइ हारको धन्य यह शुभघरी॥६६॥ बिलावल ॥ सखी निरखि अँग अंग श्यामके। कहुँ चंदन कहुँ वंदन रेखा कहुँ काजर छबि लखत वामके॥ आलसभरे नैन रतनारे चतुरनारि