निकसि चल युग पूतरी जनु अलि उरझि अधगात॥ चारि याम जुनिशि उनीदे आलस वशहि जँभात। सूर ऐसे मदनमूरति निरखि रति मुसुकात॥ सकल निशि जागे के हैं नैन। जानति हौ अति किए कोकनद आन रवनि सुख चैन॥ लटपटी पाग चाल गति उलटी रसन अटपटे वैन। लगत पलक उघरत न उघारे मनु खंडित रस ऐन॥ तमचुर टेरतही उठि धाए अब दूनो दुखदैन। जानी प्रीति सूर प्रभु अब हम सुरति भई गति मैन॥३०॥ आजु और छबि नंदकिसोर। मिलि रिस रुचि लोचन भए रोचन चितवत चित्त पराई ओर॥ सोभित पीठि प्रगट कर कंकन सोभित हार हिए बिनु डोर। सोभित पीतबसन दोउ राते अधरन अंजन नैन तमोर॥ नखशिख ज्यों श्रृंगार अटपटे पाए मन पराए चोर। फूले फिरत दिखावत औरन निडर भए दै हँसनि अकोर॥ कहत नबनै सुनतहु न आवै वैसँधि वर्णत कविन कठोर॥ अचरज क्यों न होत इन बातन सूर ग्रहण देखे जनु भोर॥३१॥ बिलावल सूही ॥ अतिहि अरुण हरि नैन तिहारे। मानहु रति रस भए रँग मगे करत केलि पिय पलकन पारे॥ मंद मंद डोलत संकितसे सोभित मध्य मनोहर तारे। मनहु कमल संपुट महँ वीधे उड न सकत चंचल अलिबारे॥ झलमलात रति रैनि जनावत अति रसमत्त भ्रमत अनिआरे। मानहु सकल जगत जीतनको कामबाण खरसान सँवारे॥ अटपटात अलसात पलकपट मूंदत कबहूं करत उघारे। मनहुँ मुदित मर्कत मणि आंगन खेलत खंजरीटचटकारे॥ बारबार अवलोकि कुरुखियन कपटनेह मन हरत हमारे। सुरश्याम सुखदायक लोचन दुखमोचन लोचनरतनारे॥३२॥ बिलावला ॥ नहिंन दुरत नैना रतनारे। बंधुप कुसुम पर सोभित सुंदर श्याम शिली मुखतारे॥ कुटिल अलक रही बिथुरि बदन पर सकुच सहित हरि नरम निहारे। भौंह सिथिलमनुमदन धनुप गुन गरेकोकनद वान बिसारे। मूंदेई आवत नैन आलस वशछीन भए उघरत न उघारे। सूरदास प्रभु सोइ पै कहो तुमको भामिनि जहँ रति रण हारे॥३३॥ रति संग्राम वीररस माते। हैं हरि शूर शिरोमणि अजहूँ नहिंन सँभारत ताते॥ आनहि वरन भए दोउ लोचन अपने सहज बिनाते। मानहुँ भीरपरी जोधनकी भए क्रोध अतिराते॥ परिमल लुब्ध मधुप जहाँ बैठत उडि न सकत तेहिठाते। मनहुँ मदनके है शरपाए फोंक बाहिरी घाते॥ बैठिजात अलसात उनीदे क्रम २ उठत तहांते। मनो मूरछा कटाक्ष नाटसल कठिन सकत हियराते॥ डगमगात घूमत जनु घायल सोभा सुभट कलाते। सूरदास प्रभु रतिरण जीते अवसकात धौंकाते॥३४॥ नैन उनीद भए रँग राते। मनहु सुरंग सुमन पर
सजनी फिरत भृंग मदमाते॥ प्रेम पराग पाँखुरी पल दल प्रफुलित मदन लताते। सुभग सुवास विलास विलोकनि प्रगट प्रीति करि ताते॥ तैसोइ मारुत मंद जम्हावरि मिली मुदित छबियाते। सींचे सुरश्याम माननिकर हितसों केलि कलाते॥३५॥ रामकली ॥ आए सुरति रंग रसमाते। मानहु छिन विश्राम नमित पिय श्रमित भएहैं ताते॥ डगमगात मग परत परत पग उठत न वेगितहांते। मनुगजमत्त चरण संकट कर गहि आनत तेहिठाते॥ उर नख छत कंकन छत पाछे सोभित है रुहिराते॥ मदन सुभटके बाण लागि मनो निकसि गए वोहि घाते॥ सांचे करत आपने बोलनि टरत नम र्यादाते। सूरश्याम कहि गए आइहैं पगधारे तेहि नाते॥३६॥ बिलावल ॥ अरुण नैन राजत प्रभु मोरे। राति सुख सुरति किए सखि सँग मनोजीत समर मन्मथ शर जोरे॥ आति उनीद अलसात कर्मगति गोलक चपल सिथिल कछु थोरे। मनहु कमलके कोश तमी तम उठत रहत छबि रिपुदल दौरे। सोभित सुभग सजल प्रतिकारे संगम छबितारे तनु डोरे। मनो भारतीके भँवर मीन शिशु
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दशमस्कन्ध-१०
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