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सूरसागर।


तू गोरी॥ हमसों करत दुराव वृथारी। इन बातन तू लहति कहारी॥ आलस अंग मरगजी सारी। ऐसी छबि कहि कालि कहांरी॥ सूरदास छबि पर बलिहारी। धन्य धन्य तुम दोउ वरनारी॥४॥ सारंग ॥ वानक बनी वृषभानु किसोरी। नख शिख सुंदर चिह्न सुरतके अरु मरगजी पटोरी॥ उर भुज नील कंचुकी फाटी प्रगटेहैं कुचकोरी। नवघन मध्य देखिअत मानहु नव रवि रस मिसु थोरी। आलस नैन सिथिल कज्जल वल मनि ताटंक नमोरी॥ मानहु खंजन हंस कंजपर लरत चूंच पढतोरी। विथुरी लट लटकी भ्रुकुटीपर विकट माँग नग रोरी। मानहुँ कर कोदंड काम अलि सैन कमलहित जोरी॥ अति अनुराग पियत पियूष हरि अधर सिंधु हृद थोरी। सूर सखी निशि संग श्यामके प्रगट प्रात भई चोरी॥५॥ सानुत ॥। राधे तू अति रंग भरी। मेरे जान मिली मनमोहन अचरा पीकपरी॥ हों जानति हौं फौज मदनकी लूटिलई सगरी। छूटी लट छूटी नकवेसीर मोतिनकी दुलरी॥ अरुण नैन मुख शरद निशाकर कुसुम गलित कवरी। सूरदास प्रभु गिरिधर के सँग सुरत समुद्र तरी॥६॥ नट ॥ मैं जानी हैरी तेरे जियकी बात सोई अरु गात चिह्न कहेदेत माई। आलस तनु मोरे भुज जोरे जम्हाइरी अटपटात माईरी लागत मोहिं सुहाई वाही पियकेमन भाई॥ वैन ऐन नैन सैन देखिये रसीले श्रृंगार हार बार विथरि रहेरी रति कँपति देति क्यों न जनाई। सूरदास प्रभुकी सुन जरी आली तेरे अंग अंग भयो उदोत वह हिलनि मिलनि खिलनकी तेरे प्रेम प्रीति जनाई॥७॥ सूही ॥ नहिं दुरत हार पियको परस। उपजतहै मनको अति आनँद अधरन रँग नैननको अरस॥ अंचल उडत अधिक छबि लागत नखरेखा उर बनी बरस। मनो जलधर तर बाल कलानिधि कबहुँ प्रगटि दुरि देत दरश॥ विथुरी अलक सुदेश देखियत श्रम जलते मिटियो तिलक सरस। सूर सखी बूझेहुँ न बोलते सो कहिं धौं तोहिं को न तरस॥॥८॥ बिलावल ॥ तोहिं छबि राजैरी ब्रजराजके संग जागेकी। करसों कर जोरि मिली जम्हात अरु औंडात होति दुरि मुरि रही अलक लसी आगेकी। कबहूं कबहूं पलक झपकि झपकि आवत ते मनभावत अंखियां अरुण भई प्रेम पगेकी॥ सूरदास प्रभुको जू प्रगट उमँगि देखत। श्याम सुंदर उर लागेकी॥॥ देशाख ॥ अरी मैं जानि पाए चिह्न दुरैं न दुराए। अति अलसात जम्हात पियारी श्यामके काम पुराए॥ कहा दुराव करति री प्यारी कोटि करै मुख नैन झुराए। सुमनहारसी मरगजी डारी पिय रँग रैनि जगाए॥ प्रगट नहीं तू करति डरति कहि सुरति सेज रति काम लराए। सूरश्याम तोहिं रस वशकीनी जात न मन बिसराए॥१०॥ सारंग ॥ काहेको दुरावति नैन नागरी॥ जानतिहौ नँदलाल रसिक पिय मिलि सब रैनि जगीरी। सुरत समैके मुख तमोर मिलि लोचन परस लागरी॥ मनहुँ शरद विधु भए पद्मयुग युग मुकलित अनुरागरी। उरज करज मनो शिव शिरपर शशि सारंग भागरी॥ अरुण कपोल अंक अलकै मिलि उरग कामिनी आगरी हरि पुनि चतुर चतुर अति कामी कै तु रूपकी आगरी। सूरदास प्रभु वश करि लीन्हे धनि त्रिय तेरो सुहागरी॥११॥ टोडी ॥ लालसों रति मानी जानी कहे देत नैनारी रंगभोए। चंचल अंचल कतहि दुरावति रूप राशि अति मानहु मीन महाउर धोए॥ पीक कपोलन तरिवनके ढिग झलमलात मोतिन छबि जोए। सूरदास प्रभु छबिपर रीझे जानतिहौ निशि नेक नसोए॥१२॥ आसावरी ॥ देखरी नख रेख वनी उर। अचला उडत अधिक छबि उपजति मनहुँ उदित शशि दुति दुतिया वर॥ सोभा कहा कहत बनि आवहि निरखि निरखि नैननि सनपावति। लागति पाइ दशो दिशि मेलति लिए रजनी कर अलिन वदावति॥ सुनि श्रवण उनमान करीतहौं निगमनेति यह लखनि लखीरी।