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सूरसागर।


इंदु जनु मानहुँ समर जए॥८४॥बिलावल॥ रैनि जागे अतिरस पागे अनुरागे नव त्रिय संग॥ मो सन्मुख कत आएहो दहन पियरसमसे नैन अटपटे वैननि तहाँई जाहु जाकेरंग॥ बिन गुन बनी माल पीक कपोलनि लाल जावक तिलक भाल कीन्हे रसवश अंग। सूरदास प्रभु रजनी बिहाइ आए मेरे जीति अनंग॥८५॥बिलावल॥ भोर भए मुख देखि लजाने। रतिके केलि वेलि मुख सींचति सोभित अरुननैन अलसाने॥ काजर रेख बनी अधरन पर नैनकपोल पीक लपटाने। मनहुँ कुंज ऊपर बैठे अलि उडि न सकत मकरंद लोभाने॥ है हियहार अलंकृत बिनुगुन आइ सुरति रणजीति सयाने। सूरदास प्रभु पांइ धारिये जानतिहौ परहाथ बिकाने॥८६॥सारंग॥ अरुण उदय बेला अरुनैन। निशिजागे अलसात श्यामधौं मोहन बोलत मधुरे बैन॥ आनन जल प्रसेय गत चलि यों आए मधुकर मधुही लैन। बार बार रजनीमुख सींचति उमँगि उमँगि रस प्रीति:दैन॥ क्रीडत सघन कुंज वृंदावन बंसीवट यमुनाके ठैन। सूरदास प्रभु सब विधि नागर पीवतहौ रस परमसचैन॥८७॥विहागरो॥ आजु निशि कहा हुतेप्यारे। तुमरीसों कछु कहि न जाति छवि अरुण नैन रतनारे॥ मेचक अधर निमेष पीक रुचिसो चिह्न देखि तुम्हारे। हृदयहार विनही गुणलंकृत मृग मद मिल्यो लिलारे॥ दशन वसन पर छाप हृदय छवि दई वृषभानु सुतारे। अरु देखो मुसुकाइ इतेपर सरवसु हरत हमारे॥ सूरश्याम चतुरई प्रगटभई आगे ते होहु न न्यारे॥८८॥ कहौ श्याम कहाँ रैनि गँवाई। अब ए चिह्न प्रगट देखि अतहै मोसों कौन करत चतुराई॥ लटपटी पाग अलक जो विथुरी बात कहत आवत अलसाई। तुमसों चतुर सुजान नागरी जाके रस तुम रहे लोभाई॥ सूरदास प्रभु तहँहि सिधारो नौतन प्रीति जहां उपजाई॥८९॥अथ सुखमाके घर सखी एक आई॥ विभास॥ सुनत सखी तहँ दौरि गई। सुने श्याम सुख माके आए धाई तरुणि नई॥ कोउ निरखति मुख कोउ निरखति अँग कोउ निरखत रँग और। रैनि कहूं फँग पगे कन्हाई कहति सबै करि रौर॥ तब कहि उठी नारि सुखमा यह भाग्य हमारे आए। सूरश्याम धनि वाम तुम्हारी जिन निशिवश करि पाए॥९०॥सारंग॥ क्यों अब दुरत हैं प्रगट भए। कहत हैं नैन निशाके जागे मानो सरसिज अरुण नए॥ जावक भाल नागरस लोचन मसिरेखा अधरनि जो ठए। बलि या पीठि वचन अलिसोहै बिन गुण कंठ हार बनए॥ भुज ताटंक ग्रीव सोहै चंदन चिन्ह कपोल दशन ग्रसए। आलिंगन चंदन कुच चर्चित मानो द्वै शशि उरहि उए॥ चरण सिथिल अरु चाल डगमगी घूमत घायल समर जए। सरवत सकल अंग शोणित है श्यामा नख सायक जो दए॥ राजत बसन पीत उर राते आति आतुर होइ उलटि लए। सूरसखी कैसे मनमानै सुंदर श्याम कुटिल नगए॥९१॥बिलावल॥ माई आजु लाल लटपटात आए अनुरागे। सोभित भूषणं अंग अंग अलस भरे रैनि उनीदे जागे॥ लटपटे शिरपेच पाग छूटे बंदन वागे। सूरश्याम रसिकराइ रसवश कीन्हें सुभाइ जागे जहां सोइ त्रिया बड़भागे॥९२॥विभास॥ हो माई आज अनत जागेरी मोहन भोरहि मेरे कीन्हो है आवन। सोभित भूषण अंग अंग आलस भरे लैलै लागे अनमिली मिलावन॥ अब कैसे पतिआतिहौ प्रीतम सांचे हो सोंहनि बोलनिबाहन बातैं बनावत। सूरश्याम रसिकराइ जावक चिह्न लगाइ अब आये मोहन असल सलावन॥९३॥सघराई॥ आज वन्यो बन रंग पियारो। ब्रजबनिता मिलि क्यों न निहारो॥ लटपटी पाग महाउर लागी। कुँवरि मनावति अति बड़भागी पीक कपोल अधर मसिलागे। आलसवलित सबै निशि जागे॥ कहुँ चंदन कहुँ वंदन की छबि। रैनि रंग अँग अंग रह्यो फबि॥ सूरश्यामके यह छबि देखो। जीवन जन्म सफल कार लेखो॥९४॥