करो जिनि धनि धनि मदन गोपाला॥७४॥ रामकली ॥ सुता दधिपति सों क्रोधभरी। अंमर लेत भई खिझि बालहि सारँग संगलरी॥ तब श्रीपति अति बुद्धि विचारी मणि लै हाथ धरी। वै अति चतुर नागरी नागर लै मुख मांझ करी॥ चाखत चरण शेष चाल आयो उदयाचलहि डरी। सूरदास स्वामी लीला उर अंकम लगि उबरी॥७५॥ सकुचि तनु उदधि सुता मुसकानी। रवि सारथी सहोदर तापति अंवर लेत लजानी॥ सारंग पाणि मूँदि मृगनैनी मणि मुख माँह समानी। चरण चापि महि प्रगट करी पिय शेष शीश सहदानी॥ सूरदास तब कहैं करैं अब लाज बहुरि तब यह मति ठानी। भुज अंकम भरि चापि कठिन कुच श्याम कंठ लपटानी॥७६॥ बिलावल ॥ वह छबि अंग निहारत श्याम। कबहुँक चुंबन देत उरोज धरि अति सकुचत तब वाम॥ सन्मुख नैनन जोरति प्यारी निलज भए पिय ऐसे। हाहा करति चरणकर टेकति कहा करत ढँग नैसे॥ बहुरि काम रस भरे परस्पर रति विपरीति बढाइ। सूरश्याम रति पति विह्वल करि नागरि रहि मुरझाइ॥७७॥ पियप्यारी तनुश्रमित भए। सकुचि उठी नागरि पटलीन्हों श्यामलजाइ गए॥ सावधान राति अंत भए
पिय प्यारी तन नहिं हेरत। नागरि कुटिल कटाक्षनि हेरति भ्रुकुटी वंकन फेरत॥ ऐसे गुण तुम किनहि सिखाए तरुणी कटि कसि दीन्हीं। सूरकहति पियसों त्रिय बातैं आज तुमहि मैं चीन्हीं॥७८॥ धनाश्री ॥ हरषि श्याम त्रिय बांह गही। अपने कर सारी अँग साजत यह इक साधकही॥ सकुचत नारि बदन मुसकानी उतको चितै रही। कोककला करि पूरण दाऊ त्रिभुवन और नहीं। कुंजभवन सँग मिलि दोउ बैठे सोभा एक चही। सूरश्याम श्यामा शिर बेनी अपने करन गुही॥॥७९॥ मोहन मोहनी अंग श्रृंगारत। बेनी ललित ललित करि गूंथत निरखत सुंदर मांग सँवारत॥ शीशफूल धरि पाटी पोंछत फूंदनि झँवा निहारत। बदनबिंद जराइकी बेंदी तापर बनै सुधारत॥ तरिवन श्रवण नैन दोउ आंजति नाशा बेसरि साजत। बीरी मुख भरि चिबुक डिठौना निरखि कपोलनि लाजत॥ नख शिख सजति श्रृंगार भावसों जावक चरणन सोहत। सूरश्याम त्रिय
अंग सँवारत निरखि आप मनमोहत॥८०॥ ललित ॥ ऐसेहि सुख सब रैनि बिहानी। भोरभए ब्रज धाम चले दोउ मन मन नारि सिहानी॥ प्यारी गई वृषभानुपुरा तन श्याम जात नँदधाम। सुखमा महल द्वारही ठाढी उन देखी वह वाम॥ प्रात चले बनते ब्रज आए मन मन करत बिचार।
सुनहु सूर ठठकत सकुचत ता गृह गए नंदकुमार॥८१॥ अथ बहुरोखंडित ॥ सुखमा घरआए ॥ रागदेवगंधार ॥ कितते आएहो नँदलाल। ले भवनमें सब भेद बूझो सुनिहौ वचन रसाल॥ ऐसी कौन बाल जा
धोखे तुम आइ द्वारह्वै झांके। मिटत नहीं चितवनि हित चितकी उह टेव नित नितकी मैं पहिचाने नैनावाँके॥ कबहुँ जम्हात कबहुँ अँग मोरत अटपटात मुखबात न आवै रैनि कहूं धौं थाके। सूरदास प्रभु रसिक शिरोमणि रसिक रसिकई जानि नाम लेहु रहे जाके॥८२॥ ललित ॥ वनतनते आए अति भोर। रातिरहे कहुँ गाँइन घेरत आएहौ ज्यों चोर॥ अंग २ उलटे आभूषण बनहूं में तुम पावत। बड़भागी तुमते नहिं कोई कृपा करत जहँ आवत॥ औचक आइ गए गृह मेरे दुर्लभ दरशन दीन्हों। सूर श्याम निशिहौ कहुँ जागे पावति अँग अँग चीन्हों॥८३॥ बिलावल ॥ लालउनीदे नैना भए। राजतहैं रतनारे नैना मानहुँ नलिन नए॥ पीक कपोल ललाट महाउर बंदन वलित खए॥ जनु तनुजामे सद्य अरुनदल कामके बीज वए। बिन गुनहार पयोधर मुद्रा हृदय सुदेशढए। अंजन अधर सुमंत्र लिख्योरति दीक्षालेन गए॥ सूरश्याम विथुरे कच मुखपर नख नाराच हए॥ ता ऊपर आनंद
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दशमस्कन्ध-१०