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दशमस्कन्ध-१०


तंबके भार॥ छिटकि रह्यो लहँगा रँग तासँग तन सुखवत सुकुमार। सूर सुअंग सुगंध समूहनि भँवर करत गुजार॥६२॥ नट ॥ आज राधिका रूप अन्हायो। देखत बनै कहत नहिं आवै मुखछबि उपमा अंत नपायो॥ अलबेली अलक तिलक केसरिको ताबिच सेंदुर बिंदु बनायो। मानो पून्यो चंद्र खेतचढि लरि सुरभानसों घायल आयो॥ काननकी बारी अतिराजत मनहुँ मदन रथ चक्र चढायो। मानहुँ नागजीति मणिमाथे भरिसोहागको छत्र तनायो॥ वंकति भौंह चपल अतिलोचन वेसरिरस मुकुताहल छायो। मानो मृगनि अमीभाजन भार पिवत न बन्यो दुहं ढरकायो॥ अधर दशन रसना कोकिलज्यों तिमिरजीतिबिच चिबुक लगायो। मनहुँ देखि रबि कमल प्रकाशत तापर भंगी सावकस्वायो॥ कंचुकि श्याम सुगंध सँवारी चौकी पर नग बन्यो बनायो। मानों दीपक उदित भवनमें तिमिर सकुच शरणागत आयो॥ भूषण भुजा ललित लटकन वर मनहु मिले अलिपुंज सुहायो। एतेहू पर रूठि सूर प्रभु लै दूती दर्पण देखरायो॥६३॥ बिलावल ॥ देखत नवल किशोरीसजनी उपजत अति आनंद। नवसत सजे माधुरी अँग अँग वशकीन्हे नँदनंद॥ कंबुकंठ ताटंक गंडपर मंडित बदन सरोज। मोहनके मन बांधिवेको मनो पूरी पासि मनोज॥ नाशापरम अनूपम सोभित लज्जित कीर बिहंग। मानो विधु अपने कर बनायके तिलप्रसूनके अंग॥ भुजविलास करकंकन सोभित मिलिराजत अवतंश। तीन रेख कंचनके मानो बहु बनाइ पियअंश॥ कुंकुम कुंचन कंचुकी अंतर मंगल कलसअनंग। मधुपूरण राखे पियकारण मधुर मधुपके अंग॥ कीरति विशद विमल श्यामाकी श्रीगोपाल अनुराग। गावत सुनत सुखद कर मानो सूर दुरे दुखभाग॥६४॥ जयतश्री ॥ नवनागरीहो सकल गुण आगरीहो। हरिभुज ग्रीवाहो सोभाकी सींवाहो श्याम छबीली भावती गौर श्याम छबि पावती॥ सैसवतामें हे सखी जोबन किया प्रवेश। कहाकहौं छबि रूपकी नखशिख अंग सुदेश॥ श्रीपति केलि सरोवरी सैसव जलभरि पूरि। प्रगट भई कुचस्थली सोख्यो जोबन सूरि। छुटे केशमज्जन समय देखि विरुध अहिभोर। भोरकहूं निशिमें रमे उतरि चले अहिओर। शीश सचिक्कन केशहो बिच श्रीमंत सँवारि॥ मानहुँ किरनि पतंगते भयो दुधांत महारि॥ केसरि आड लिलाटहो बिच सेंदुरको बिंद। नैनन ऊपर कहाकहौं ज्यों राजत भुवभंग। जुवा बनावत चंद्रमा चपलहोत सारंग॥ चंपकली सी नासिका राजत अमल अदोस। तापर मुक्ता योंबन्यो मनो भोरकन ओस॥ मुक्ता आपु विकाइहो उरमें छिद्र कराइ। अधर अमृत हित तपकरै अधमुख ऊरप पाइ॥ अधरनकी छबि कहतहौं सदा श्याम अनुकूल। बिंब पँवारे लाजहीं हरषत बरषतफूल॥ पांति कांति दशनावली रहे तमोल रंग भीज। वंदनसों शशिमें वए मनो सै दामिनि के बीज॥ गुंजाकीसी छबि लई मुक्ता अति बड़भाग। नैननकी लई श्यामता अधरनको अनुराग॥ वेसरिके मुक्ता मनि धनि धनि नाशा ब्रज नारि। गुरु भृगु सुत बिच भौम हो शशि समीप गृह चारि॥ खुंटिला सुभग जराइके मुकुता मणि छबि देत। प्रगट भयो घनमध्यते शशि मनो नक्षत्र समेत सुंदर सुघर कपोलहो रहे तमोर भरिपूर। कंचन संपुट द्वैपला मानहु भरे सिंदूर॥ चिबुक डिठौना जब दियो मो मन धोखे जात। निकस्यो अलि शिशु कुंजते मनहुँ जानि परभात॥ जेहि मारग वन वाटिका निकसति आनि सुभाइ। मधुप कमल वन छांडिकै चलत संग लपटाइ॥ जहां जहां तू पगधरै तहां तहां मन साथ। अति आधीन पिय ह्वै रहै तन मन दै तेरे हाथ॥ देखि बदनके रूपको मोहन रह्यो लुभाइ। इकटक रह्यो चकोर ज्यों दृष्टि न इतउत जाइ॥ तोहिं श्याम सोहे

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