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(३८२) सूरसागर। कमल कोश कोमल विभाग अनुराग वहत । सूरदास सुंदर अति शीतल मृदु वै उन सहत ॥३७॥ हरि तोहि वारंवार सम्हारै । कहि कहि नाम सकल युवतिनके कहूं नहीं रुचि जेहि उर धारै ॥ कवहुँक ऑखि नदिकार चाहत चित धरि गैरति हारे । तव प्रसिद्ध लीला वन विहरत. अव नहि तुमहि विसारे ॥ जो जाको जैसो करि जानै सो तैसे हित मानै । उलटी रीति तुम्हारी सुनिकै सब अचरज कर जानै । क्योंपतियाँ पठवै नहिं उनको वाँचि समुझि सुख पावै ॥ सुरश्याम है कुंजधाम में अनत नमन विरमावै ॥ ३८ ॥राधे हरि तेरो नाम विचार । तुम्हरेई गुण ग्रंथित करि माला रसना करसों टारैलोचन मंदि ध्यान धरि दृढ कार नेकन पलक उचा । अंग अंग प्रति रूप माधुरी उरते नहीं बिसारै ॥ ऐसो नेम तुम्हारो पियकै कह जिय निठुर तिहारे। सूरश्याम मनकाम पुरावहु उठि चलि कहे हमारे ॥ ३९ ॥ विलावल ॥ चल राधे हरि बोलीरी । उठि चलि वेगि गहरकत लावति वचन श्यामकी डोलीरी ॥ तनु जोवन ऐसे चलि जैहै जनु फागुनकी होरी । भीजि विनशि जाई क्षण भीतर ज्यों कागज की चोलीरी ॥ तोपर कृपा भई मोहनकी छांडि.सबै चो छोलीरी । सूरदास स्वामी मिलिवेको ताते तू निमौलीरी ॥१०॥ केदारो॥ जाके दरशनको जग तरसत ताहि दरश नैंक दैरी । जाकी मुरलीकी ध्वनि सुर मुनि मोहे तातन नैक चितैरी ॥ शिव विरंचि जाको पार न पावत सो तो तेरे चरणन परसतुहरी । सूरदास वश तीनि लोक जाके हैं सोतो तेरे वश माईरी तू सुख ध्वनि सुनाइ मोहिं लैरी ॥४१॥ रागभूपाली।। तुव कोहैरी कौन पठाई तेरीको मान । तूज़ कहति श्याम कौनसे देखेन सुने को पहिचानै । और कहति कहि नेम लियो ह्यां को वैसी वै जाने । सूरदास प्रभु रसिक बड़ेतोको पठई अति स्यान । ॥४२॥ सारंग ॥ अति हठ नकीजैरी सुनि ग्वारि । हौं जु कहति तू सुन याते शठ सरै नएको द्वारि ॥ एक समय मोतिनके धोखे हंस चुनतहै ज्यारि। कीजै कहा काम अपनेको जीति मानिए हारि॥ हौं जो कहति हौं मान सखीरी तनको काज सँवारि । कामी कान्ह कुँअरके ऊपर सरवस दीजै वारि ॥ यह जोवन वर्षांकी नदी ज्यों बोरति कतहि कीर। सूरदास प्रभु अंत मिलङगी. एवीते दिन चारि ॥४३॥ रामकली ॥ कहा तुम इतनेहिको गर्वानी। जोवन रूप दिवश दशहाँको ज्यों अँगुरीको पानी ॥ करि कछु ज्ञान अभिमान जानदै है अब कौन मति ठानी । तन धन: जानि याम युग छाया भूलति कहा अमानी ॥ नवसै नदी चलत मर्यादा सूधी सिंधु समानी । सूर इतर ऊपरके वरषे थोरेहि जल इतरानी॥४ापुरियातू चलि प्यारीरी एतो हठ छांडिं मानी। : परम विचित्र गुण रूप आगरी अतिहि चतुर त्रिय भारीरी ।। मदन मोहन तन मदन दहतहे तेरी उनकी पीर न्यारी । सूरदास प्रभु विरह विकल हैं नैक न निरखि निहारीरी॥४६॥ विहागरो। वादि । वकति काहेको तू कत आई मेरे घर । वे अति चतुर कहा कहिए जिनि तोसी मूरख लैन पठाई । तनु वेधति वचनन शर उतकी इत इतकी उत मिलवति समुझति नाहिन प्रीति रीतिकोही तू कोहै । गिरिवर धर। सूरदास प्रभु आनि मिलेंगे हैं पग अपने कर॥४६॥ ज्यों ज्यों मैं निहोरे करौं त्यो त्यों यों बोलति हैरी अनोखी रूंसनहारी बहियाँ गहत. संतरांति कौनपर मगधरी उँगरी कौन । मैं होत पीरी कारी॥ कौन करतमान तोसी और न त्रिय आन हठ दूरि करि धरि मेरे कहे आरी। सूरदास प्रभु तेरो पथ जोवत तोहिँ तोहिं रट लागी मदन दहत तनुभारी ॥ १७ ॥ मलार ॥ तउतो गँवारि अहीरि तोसों कछु नँदनंदन हँसि कह्यो इतनेहीको तू कबकी अन उत्तर !! वोलति को नहीं न. मानति हीरी। श्यामसुंदर हँसि हँसि देत सुनि सुनि करत कानि इक