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दशमस्कन्ध-१० (३८) आधुन चलिए जो तुमहूं पै जाय लयो ॥२७॥ नट ॥ विहरत मानसर सकुमारि । कैसेहूँ निकसत नहीं हो रही करि मनुहारि ॥ मौन पारि अपार रंचि अवगाह अंशं जुवारि । मगन व वै डरत नाहीं थकितं प्रगट पुकारि ।। सुरश्याम सरोज लोचन दुलंन जन जलंचारि ।ग्राह ग्राहक प्राण चाहक करत रति नहीं डर डारि ॥ चिकुर सइवर निकरि अरुझति सकति नहिं निरुवारि । नील अंचल पत्र पमिनि उरज जलज निहारि ॥ रच्योरचि रुचि मान मानिनि मनमराल मुरारि । सूरं आपुन आनिए गहि बाँह नारि निकारि ॥२८॥ विहागरो ॥ यह सुनि श्याम विरह भरे । कहुँ मुकुट कहुँ काट पीतांवर मुरछि धरणि परे । युवति भरि अंकवारि लीन्हों है कहा गिरिधारी। आपुही चलि बांह गहिए अंक लीजै नारि ॥अतिहि व्याकुल होत काहे धरौ धीरज श्याम । सूर प्रभु तुम वड़े नागर विवस कीन्हे काम ॥२९॥ रामकली ॥ श्यामहि धीरज दै पुनि आई । वाणी इहै प्रकाशत मुखं में व्याकुल पडे कन्हाई ॥ वारंवार नैन दोउ ढारत परे. मदन जंजाल । धरणि रहे मुरझाइ विलोके कहा कहौं वेहाल । बैठी आइ अनमनी के वारवार पछितानी। सूरश्याम मिलिकै सुख देहि न जो तुम बड़ी सयानी ॥ ३० ॥ तुही प्रिया भावती नाहिन आन । निशि दिन मन मन करत मनोहर रसवश केलि निदान ॥ ध्यान विलास दरश संभ्रम मिलि मानत मानिनि मान । अनुनायन करत वि वसं बोलत हैं दैपरिरंभन दान ॥ प्रथम समागम ते नानाविधि चरित तिहारे गान । सूरश्याम कह वर अंतर सुनि सुयश आंपने कान ॥३१॥ सारंग ॥ श्याम तू अति श्यामहि भावै । वैठत उठत चलत गउच्चारत तेरिय लीला गावै । पीतै पीत वसन भूषण सजि पीत धात अँगलावै । चंद्रानन सुनि मोरचंद्रिका माथे मुकुट वनावै ॥ अति अनुराग सैन संभ्रम मिलि संग परमसुख पावै । विछु रत तोहि कासि राधा कहि कुंज कुंज प्रति धावै ॥ तेरो चित्र लिखै अरु निरखै वासर विरह गँवावै । सूरदास रसरसी रसिकसों अंतर क्योंकरि आवे ॥ ३२ ॥ विहागरो ॥ मन मन पछितायो रहि जैहै। सुनि सुंदरि यह समो गएते पुनि न शूल सहिजैहै ॥ मानहु मीन मजीठ प्रेम रंग तैसेही गहि जैहै। कान हर्ष हरर हरि अमर देखतही वहि जैहै ।। इते भेदकी वात सखीरी कत कोऊ कहि जैहै। भरत भवन संनि कप सुर त्यों मदन अगिनि वहि दहिजेहै ।। ३३ ॥ केदारो ॥ तेई नैन सुहावनेहो नैक नभावत न्यारेरी । पलंक वोट प्राण जाते तेरेरी ध्यान चकोर चंदा मेरे नैन चित 'वनि पर चेरेरी॥ कमल कुरंगजु मधुप उपमा नहिं आवै चंचल रहत चितेरेरी । सूरदास प्रभुकी तुहि जीपनि कतहि करत त्रिय झरेरी ॥ ३४॥ आसावरी ॥ वनत नहीं राधे मानु किए । नंदलाल आरतकै पठई सौंह करतिहो शीश छुए। जाके पद कमलाकर लीने मन वच क्रम चित उन्हें दिये । ता प्रभुको पठईहौं आई तू जु गर्नकी मोटलिए ॥ हरि मुख कमल सच्यो रस सजनी अति आनंद पीयूपं पिये । सूरदास सकल सुख हरि सँग कृपा विमुख के काल जिये ॥३५॥ सारंग ॥ जब जब सुरति करत तब तब डच डबाइ दोउ लोचन उमगि भरत ॥ जैसे मीनं कमल दलको चले अधिक अरत । पलक कपाट नहोत तंवहीते निकति परत । 'असु परत गरि बरि उर ऊपर मुक्ता मनहुँ झरत । सहजगिरा बोलत न वनत हित हेरि हरत । राधा नैन चकोर विना मुख मानहु चंद्र जरत । सूरश्याम तुम्हरे दरशन विन नाहिंन धीर धरत ॥३६॥ सारंग ॥ चित चलि छुकि रहत । तव पद चिह्न परसि रस वश भए. आधे वचन : कहत ॥ किसलय कुसुम' पराग अंबपै फेन अहत । कंटकं जनु भू-कठिन जानियंत कष्ट लहत ॥ ॥