आपुन चलिए जो तुमहूं पै जाय लयो॥२७॥ नट ॥ विहरत मानसर सकुमारि। कैसेहूँ निकसत नहीं हो रही करि मनुहारि॥ मौन पारि अपार रचि अवगाह अंशं जुवारि। मगन ह्वै वै डरत नाहीं थकित प्रगट पुकारि॥ सुरश्याम सरोज लोचन दुलन जन जलचारि। ग्राह ग्राहक प्राण चाहक करत रति तहां डर डारि॥ चिकुर सइबर निकरि अरुझति सकति नहिं निरुवारि। नील अंचल पत्र पद्मिनि उरज जलज निहारि॥ रच्योरचि रुचि मान मानिनि मनमराल मुरारि। सूर आपुन आनिए गहि बाँह नारि निकारि॥२८॥ विहागरो ॥ यह सुनि श्याम विरह भरे। कहुँ मुकुट कहुँ कटि पीतांबर मुरछि धरणि परे॥ युवति भरि अंकवारि लीन्हों है कहा गिरिधारी। आपुही चलि बांह गहिए अंक लीजै नारि॥ अतिहि व्याकुल होत काहे धरौ धीरज श्याम। सूर प्रभु तुम बड़े नागर बिवस कीन्हे काम॥२९॥ रामकली ॥ श्यामहि धीरज दै पुनि आई। वाणी इहै प्रकाशत मुख में व्याकुल बडे कन्हाई॥ बारंबार नैन दोउ ढारत परे मदन जंजाल। धरणि रहे मुरझाइ बिलोके कहा कहौं बेहाल। बैठी आइ अनमनी ह्वैकै बारबार पछितानी। सूरश्याम मिलिकै सुख देहि न जो तुम बड़ी सयानी॥३०॥ तुही प्रिया भावती नाहिन आन। निशि दिन मन मन करत मनोहर रसवश केलि निदान॥ ध्यान विलास दरश संभ्रम मिलि मानत मानिनि मान। अनुनायन करत बिबस बोलत हैं दैपरिरंभन दान॥ प्रथम समागम ते नानाविधि चरित तिहारे गान। सूरश्याम कहवर अंतर सुनि सुयश आपने कान ॥३१॥ सारंग ॥ श्याम तू अति श्यामहि भावै। बैठत उठत चलत गउचारत तेरिय लीला गावै। पीतै पीत वसन भूषण सजि पीत धात अँगलावै। चंद्रानन सुनि मोरचंद्रिका माथे मुकुट बनावै॥ अति अनुराग सैन संभ्रम मिलि संग परमसुख पावै। बिछुरत तोहिं क्कासि राधा कहि कुंज कुंज प्रति धावै॥ तेरो चित्र लिखै अरु निरखै बासर विरह गँवावै। सूरदास रसरसी रसिकसों अंतर क्योंकरि आवै॥३२॥ विहागरो ॥ मन मन पछितायो रहि जैहै। सुनि सुंदरि यह समो गएते पुनि न शूल सहिजैहै॥ मानहु मीन मजीठ प्रेम रँग तैसेही गहि जैहै। काम हर्ष हररै हरि अमर देखतही वहि जैहै॥ इते भेदकी बात सखीरी कत कोऊ कहि जैहै। भरत भवन खनि कूप सूर त्यों मदन अगिनि वहि दहिजेहै॥३३॥ केदारो ॥ तेई नैन सुहावनेहो नैक नभावत न्यारेरी। पलक वोट प्राण जाते तेरेरी ध्यान चकोर चंदा मेरे नैन चितवनि पर चेरेरी॥ कमल कुरंगजु मधुप उपमा नहिं आवै चंचल रहत चितेरेरी। सूरदास प्रभुकी तुहि जीवनि कतहि करत त्रिय झरेरी॥३४॥ आसावरी ॥ बनत नहीं राधे मानु किए। नंदलाल
आरतकै पठई सौंह करतिहो शीश छुए॥ जाके पद कमलाकर लीने मन वच क्रम चित उन्हैं दिये। ता प्रभुको पठईहौं आई तू जु गर्वकी मोटलिए॥ हरि मुख कमल सच्यो रस सजनी अति आनँद पीयूष पिये। सूरदास सकल सुख हरि सँग कृपा विमुख कै काल जिये॥३५॥ सारंग ॥ जब जब सुरति करत तब तब डब डबाइ दोउ लोचन उमँगि भरत॥ जैसे मीन कमल दलको चले अधिक अरत। पलक कपाट नहोत तबहींते निकसि परत।
अंसु परत ढरि ढरि उर ऊपर मुक्ता मनहुँ झरत। सहजगिरा बोलत न बनत हित हेरि हरत। राधा नैन चकोर बिना मुख मानहु चंद्र जरत। सूरश्याम तुम्हरे दरशन बिन नाहिंन धीर धरत॥३६॥ सारंग ॥ चितै चलि ठुठुकि रहत। तब पद चिह्न परसि रस वश भए आधे वचन कहत॥ किसलय कुसुम पराग अंबषै फेन अहत। कंटकं जनु भू कठिन जानियत कष्ट लहत॥
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दशमस्कन्ध-१०