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दशमस्कन्ध-१०


भँवर उडि न सकत फिरि बैठत जा समीप रतिमानी संगलिए आवत रतिकीरति गावत। सूरदास प्रभु प्यारे प्यारी रसवश कीन्हे मुखकी हमहि बनावत॥६॥ कान्हरो ॥ जाके रस रैनि आजु जागे हो लाल जाई। जावक तिलक भाल दीयो है नंदलाल बिनु गुन बनी माल कहत अनोखी अरु बातनि बनाई॥ अधर अंजन दाग मिट्योहै पीक पराग और मिटी वंदनकी ललाई। अंग अंग सिथिल भएहौ प्रेम सुरके स्वामी मिटि गई चंचलताई ॥७॥ रंग भरि आएहौ मेरे ललना बातैं कहतहौ अटपटी। अति अलसात जम्हातहौ प्यारे पिय प्रगट त्रिया प्रताप छूटत नहिंन अंतरकी गटी॥ यह चतुराई अधिकाई कहाँ पाई श्याम वाके प्रेमकी गढि पढेहौ पटी। सूरदास प्रभु गिरिधर बहुनायक तन मन नैन चटपटी॥८॥॥ ईमन ॥ डोलत महल महल इहै टहल हम जानति तुम बहु नाइक पीये। आयेहौ सुरति किए ठाठकरख लिये सकसकी धकधकी हिये। छूटे वंदन अरु पागकी बांधनि छुटी लटपटे पेच अटपटे दिये। सूरदास प्रभुहौ बहुनायक मेरे पाँव धारे बैठो जू बैठो भली किये॥९॥ महल महल अब डोलतहौ। इहै कामते धाम बिसारयो बूझे काहि न बोलतहौ॥ बहुनायककी आजु मैं जानी कहा चतुरई तोलतहौ। निशि रस कियो भोर पुनि अटके शिथिल अंग पुनि डोलतहौ॥ तटके चिह्न पाछिले न्यारे धकधकात उर जोलतहौ॥ जाहु चले गुन प्रगट सूर प्रभु कहा चतुरई छोलतहो॥१०॥ अंग अंग रंग भरे आएहौ। रंगभरी पाग भाल रँग सोभा रंग रंग नैन पगाएहौ॥ रँग कपोल रँग पलकनि सोभा अधरन श्याम रँगाएहौ। नख छत रंग चारु उर रेखा रति रँग रैनि जगाएहौ॥ कंकन वलय पीठि गड़ि लागे उरपर छाप बनाएहौ। सूरश्याम वा मारग पागे अनुरागे मन भाएहो॥११॥ बिलावल ॥ बारबार मैं कहतिहौं पिय तहां सिधारो। आएहौ मन हरनको हरि नाम तुम्हारो॥ भली बनी छबि आजुकी क्यों लेत जम्हाई। रैनि आज सोए नहीं रतिकाम जगाई॥ वह रति तुम रतिनाथहौ हम कैसे भावै।सूरश्यामते बहु गुणी जे तुमहिं रिझावै॥१२॥ सोरठ ॥ सकुचत श्याम कहउ मृदुबानी। किनि देख्यो किनि कही बात यह मो हुजूर कहै आनी॥ याते वचन बोलि नहिं आवत रिस पावतहौ भारी। जोरि कहति बातैं तुम आगे खोटी ब्रजकी नारी॥ तुमहूंते ऐसीको प्यारी सौंह करो जो मानों। सुनहु सूर जो बूझति मोको मैं काहुन पहिचान॥१३॥ बिलावल ॥ को पति आइ तुम्हारी सोंहनि। वा तियको अनुराग देखियत प्रगट रावरी भौंहनि। तुलसीको कहा नीम प्रगट कियो मोहीते करि वोहनि। प्रात आइ मनु पोषन लागे आए घालन खोहनि॥ मुँहहींकी हमसों मिलवत जिय बसत जहाँ मनमोहनि। सूर सुवंस घर छाँडि हमारो क्यों रति मानत खोहनि॥१४॥ भैरव ॥ बिन बोले पिय रहिएजू। नाहीं कही कहै कहा ताको अब ऐसे जिनि दहिएजू॥ मौन रहौतौ कछू गँवावहु इनबातन कछु लहिएजू। सौंह कहा करिहौ सुनि पावहिं सन्मुख ह्वै धौं कहिएजू॥ एतेपर कहा वादन लागे कैसे रिस मन सहिएजू। सूरदास प्रभु रसिक शिरोमणि रसिकहि सब गुण चहिएजू॥१५॥ बिलावल ॥ आइ गई ब्रजनारी तहाँ। सौंह करत पिय प्यारी आगे आनँद विरह महा॥ प्यारी हँसि देखी सखियनको अंतर रिसहै भारी। नैन सैन दै अंग देखावति पिय सोभा अधिकारी॥ श्याम रहे मुख मूंदि संकुचिके युवति परस्पर हेरैं। सूरदास प्रभु अँग अनूप छबि कहँ पायो केहिकरैं॥१६॥ तब नागरी कहति सखियन सों एतेपर क्यों सौंह करैं। दरशन प्रात देत है हमको निशि औरन के चित्त हरैं॥ तुमहीं देखि लेहु अँगबानक एतेपर क्यों सही परै। कृपाकरैं अब तहीं सिधारैं मो