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दशमस्कन्ध-१०


माई। कहा श्याम अचरज सो कीन्हों कहत कह्यो नहिं जाई॥ कैसे लाल अनतते आए कैसे तेरे गेह। कैसे मान कियो क्यों मिटिगए कैसे बढ्यो सनेह॥ तब गद्गद वाणी मुख प्रगटी सुन सजनी दै कान। सूरज प्रभुके चरित सुनाऊँ जैसे बिसरयो मान॥८४॥ बिलावल ॥ प्रातसमै मेरे मोहन आए कुंचित केश कमल मुख ऊपर हृदय रहो मन अलि कुलछाए॥ डगमग चाल परत न सूधे पग इहि विधि तौ मेरे मन भाए। कहुँ कहुँ पीक कहूं काजर कहुँ नखरेखा अति बनत सुहाए॥ मोतन बीच निरखि मुसुकाने छोरि पीतपट अंक दुराए। सूरश्याम माधव बालि अब बलि श्याम जानि हौं पाए॥८५॥ गौरी ॥ मैं हरि सों हो मान कियोरी। आवत देखि आन वनितारति द्वार कपाट दियोरी॥ अपनेही कर संकर सारी संधि संधि सियोरी। जो देखों तौ सेज समूरति कांप्यो रिसनि हियोरी। जब झुकि चली भवनते बाहर तब हठि लोट लियोरी। कहा कहौं कछु कहत न आवै हेतु गोविंद वियोरी॥ बिसरि गई सब रोष हरष मन पुनि फिरि मदन जियोरी। सूरदास प्रभु अति रति नागर छलि मुख अमृत पियोरी॥८६॥ बिलावल ॥ तबहींते भयो हरष हियोरी। वैसे आइ चरित ए कीन्हे सदन पैठि मन चोरि लियोरी। अंग वाम छवबि शेष देखिकै रिस उपजी जियभारी। क्रोध गयो उर आनँद उपज्यो सुख तनु दशा बिसारी॥ ऐसे चरित कौनको आवैं जे कीने गिरिधारी। सूरश्याम रतिपतिके नायक सब लायक बनवारी॥८७॥ भैरव ॥ नँदनंदन सुखदायक हैं। नैन सैनदै हरत नारि मन कामं कामतन दायक हैं॥ कबहूं रैनि बसत काहूके कबहुँ भोर उठि आवत हैं। सुनहु सूर जेइ जेइ मनभाषत तेइ तेइ रँग उपजावत हैं॥ ८८॥ बिलावल ॥ अनतहि रैनि रहे कहुँ श्याम। भोर भए आए निज धाम॥ नागरि सहज रही मनमाहीं। नंदसुवन निशि अनत नजाही॥ महरसदनकी मेरे गेह। हृदय है त्रिय इहै सनेह॥ आये श्याम रही मुख हेरा। मन मन करन लगी अवसरि॥ रतिरस चिह्न नारिके वानि। सूर हँसी राधा पहिचानि॥८९॥ रामकली ॥ आज बने पिय रूप अगाध। परउपकाज हेतु तनु धारचो पुरवत सब मन साधा॥ धर्म नीति यह कहा पढी जू हमहूं बात सुनावहु। कहौ कहां काको सुख दीनों काहेन प्रगट बतावहु॥ धनि उपकार करत डोलतहौ आज बात यह जानी। सूरश्याम गिरिधर गुण नागर अंग निरखि पहिचानी॥९०॥ गुजरी ॥ पिय छबि निरखि हँसति त्रियभारी। कहां महाउर पाग रँगाई यह सोभा इक न्यारी॥ अरुननयन अलसात देखियत पलक पीकलपटानो। अधर दशन छत बंदन राजत बंधुकंपुर अलिमानो॥ हृदय रुचिर मोतिनकी माला नसरेखा तेहि तीर। बिनु गुनमाल सूरके स्वामी कुंकुम श्यामशरीर॥९१॥ ॥ बिलावल ॥ धन्य आजु यह दरशदियो। धन्य धन्य जासों अनुरागे तब जानी नहि और वियो॥ भले श्याम वह भली भावती भले भली मिल भलीकरी। यह मेरे जिय अतिहि अचंभित तौं विछुरत क्यों एक घरी॥ जाहु तहीं सुख दीनो मोको वै सुनिकै रिस पावैंगी। सूरश्याम अतिचतुर कहावत बढुरों मनन मिलावैंगी॥९२॥ क्यों आये उठि भोर इहां। काहेको इतनो सरमाने रैनिर हे फिरि जाहु तहां॥ हमको कहा इती गरुआई उनही क्यों न सम्हारोजू। उनआए ह्यांनाहीं जान्यो अजहूं लौं पगधारौजू॥ हमहूं बोलि वहाँई लीजो डर उनको हमहूं कोहै। सूरश्याम तिनहीं सुख दीजै जो विलसैं सँग तुमकोलै॥९३॥ रामकली ॥ उनहीको मन राखे काम। ह्यां तुम आए हौजू नाहीं बात सुनतहौ नाहीं श्याम॥ देखो अंग अंग प्रतिसोभा मैंतौ भूलीहौं यहिरूप। धनिपिय वने वनी वेऊ हैं इक इक रूप अनूप॥ सो छबि मोहिं देखावन आए मायाकरी बहुत हरिआजु सूरदास प्रभु रसिक शिरोमणि वह उरसिकनी बन्यो समाजु॥९४॥ बिलावल ॥ रसिक रसिकई जानिपरी। नैननते अब न्यारे हूजै तबहीते अति रिसनि भरी। तुम जोवन अरु सो नवजोवनि

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